वर्तमान परिस्थितियों के बीच यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब यस बैंक के ग्राहकों और निवेशकों को आने वाला संकट दो साल पहले ही दिख गया था तो फिर रिजर्व बैंक की आंखों पर पट्टी क्यों बंधी रही? दरअसल यह कहना सही नहीं होगा कि रिजर्व बैंक ने यस बैंक के मामले की अनदेखी की। लेकिन यह अवश्य कहा जा सकता है कि रिजर्व बैंक अनिर्णय का शिकार हुआ। राणा कपूर की रीति-नीति और यस बैंक के कामकाज को निकट से देखने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि अगस्त 2018 में कपूर को हटाए जाने के लिए 31 जनवरी 2019 तक की समयसीमा तय करना रिजर्व बैंक के लचर प्रशासनिक फैसले का एक उदाहरण है।
कपूर ने जिस तरह यस बैंक की बैलेंस शीट को कमजोर किया था, उसमें गड़बड़ी की थी और कई आवश्यक जानकारियां छिपाने की कोशिश की थी, उसे देखते हुए बहुत पहले उनकी विदाई हो जानी चाहिए थी। रिजर्व बैंक की नाक के नीचे घटिया बैलेंस शीट वाली कंपनियों को यस बैंक कर्ज देता रहा, उसके एनपीए में बढ़ोतरी होती रही, उनका पीसीआर रिजर्व बैंक द्वारा तय सीमा से बहुत नीचे चलता रहा और रिजर्व बैंक को हस्तक्षेप की जरूरत महसूस नहीं हुई, यह आश्चर्यजनक है।वित्तीय वर्ष 2018-19 में यस बैंक ने पहली बार एनपीए को कारण बताते हुए घाटा दर्ज किया। एनपीए का अनुपात बढ़ता हुआ 10 प्रतिशत के पार पहुंच गया और रिजर्व बैंक का धैर्य तब टूटा जब अक्टूबर-दिसंबर 2019 के तिमाही नतीजे जारी करने में यस बैंक की ओर से देरी की जाने लगी। कई विशेषज्ञों ने अनुमान जताया कि बैंक का वास्तविक एनपीए 30 प्रतिशत से भी ऊपर पहुंच गया है। यह एक ऐसा भयानक आंकड़ा है, जिसके सच साबित होने की स्थिति में यस बैंक का भी आइएलएंडएफएस की गति को प्राप्त होना तय था।पहले से ही सुस्ती झेल रहे भारतीय आर्थिक ढांचे के लिए पांचवें सबसे बड़े निजी बैंक का धराशायी होना एक ऐसी परिस्थिति होती जिसे संभालना सरकार और आरबीआइ के लिए बहुत मुश्किल होता। इसीलिए आखिरकार रिजर्व बैंक ने एक ऐसा कदम उठाया जो अपने आप में असाधारण है। नियामक को यह भी पता है कि यदि तीन जुलाई से पहले जमाकर्ताओं में यह भरोसा नहीं बैठाया गया कि यस बैंक में जमा उनकी रकम सुरक्षित है तो उसमें जमा करीब दो लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की रकम निकालने की होड़ मच जाएगी।