मत्स्यपुराण में बताया गया है कि प्राचीन काल में अन्धकासुर के वध के समय भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर जो स्वेदबिन्दु गिरे, उनसे एक भयंकर आकृति वाला पुरुष प्रकट हुआ जो विकराल मुख फैलाये हुए था। उसने अन्धकगणों का रक्त पान किया, किंतु तब भी उसे तृप्ति नहीं हुई और वह भूख से व्याकुल होकर त्रिलोकी को भक्षण करने के लिए तैयार हो गया। बाद में शंकरजी तथा अन्य देवताओं ने उसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तु देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया और उसके शरीर में सभी देवताओं ने वास किया इसलिए वह वास्तु के नाम से प्रसिद्ध हो गया। देवताओं ने उसे गृह निर्माण के, वैश्वदेव बलि के तथा पूजन यज्ञ−यागादि के समय पूजित होने का वर देकर प्रसन्न किया। इसलिए आज भी वास्तु देवता का पूजन होता है। देवताओं ने उसे वरदान दिया कि तुम्हारी सब मनुष्य पूजा करेंगे। इसकी पूजा का विधान प्रासाद तथा भवन बनाने एवं तडाग, कूप और वापी के खोदने, गृह−मंदिर आदि के जीर्णोद्धार में, पुर बसाने में, यज्ञ−मंडप के निर्माण तथा यज्ञ−यागादि के अवसरों पर किया जाता है। इसलिए इन अवसरों पर यत्नपूर्वक वास्तु पुरुष की पूजा करनी चाहिए। वास्तु पुरुष ही वास्तु देवता कहलाते हैं।
नियमित देव पूजा में विशेष मंत्र से वास्तुदेव का ध्यान वास्तु दोष को दूर करने के लिए आसान उपाय माना गया है, जो घर में बिना किसी तोड़-फोड़ किए भी कारगर हो सकता है। मान्यता है कि घर के किसी भी भाग को तोड़ कर दुबारा बनाने से वास्तु भंग दोष लग जाता है। इसकी शांति के लिए भी वास्तु देव पूजन किया जाता है। इसके अतिरिक्त भी यदि आप किसी फ्लैट या कोठी में रहते हैं और आपको लगता है कि किसी वास्तु दोष के कारण आपके घर में कलह, धन हानि व रोग आदि हो रहे है तो आपको नवग्रह शांति व वास्तुदेव पूजन करवा लेना चाहिए।
पूजन सामग्री- वास्तु देव पूजन के लिए आवश्यक सामग्री इस प्रकार है- रोली, मौली, पान के पत्ते, लौंग, इलाइची, साबुत सुपारी, जौ, कपूर, चावल, आटा, काले तिल, पीली सरसों, धूप, हवन सामग्री, पंचमेवा, शुद्ध घी, तांबे का लोटा, नारियल, सफेद वस्त्र, लाल वस्त्र, 2 पटरे लकड़ी के, फूल, फूलमाला, रूई, दीपक, आम के पत्ते, आम की लकड़ी, पंचामृत, माचिस, स्वर्ण शलाखा।
नींव स्थापन के लिए कुछ अतिरिक्त सामग्री चाहिए होती है जो इस प्रकार है- तांबे का लोटा, चावल, हल्दी, सरसों, चांदी का नाग-नागिन का जोड़ा, अष्टधातु कच्छप, 5 कौडियां, 5 सुपारी, सिंदूर, नारियल, लाल वस्त्र, घास, रेजगारी, बताशे, पंच रत्न, पांच नई ईंटें।
पुराणों में कहा गया है कि देवालय या चौराहे के समीप अपना घर नहीं बनवाना चाहिये क्योंकि इससे दु:ख शोक और भय बना रहता है। घर के चारों ओर तथा द्वार के सम्मुख और पीछे कुछ भूमि को छोड़ देना शुभकारक है। पिछला भाग दक्षिणावर्त रहना ठीक है क्योंकि वामावर्त विनाशकारक होता है। दक्षिण भाग में ऊंचा रहने वाला घर ‘सम्पूर्ण’ वास्तु के नाम से अभिहित किया जाता है। वह मनुष्यों की सभी कामनाओं को पूर्ण करता है। द्वार के ऊपर जो द्वार बनता है, वह यमराज का मुख कहा जाता है। यदि मुख्यद्वार अन्य द्वारों से निकृष्ट हो तो वह बहुत बड़ा दोषकारक होता है। घट, श्रीपर्णी और लताओं से मूलद्वार को सुशोभित रखना चाहिये और उसकी नित्य बलि, अक्षत और जल से पूजा करनी चाहिये। जिस समय गृहप्रवेश हो, उस समय कारीगर का भी रहना उचित है।