देवी पार्वती का भक्ति भाव जानकर भगवान शंकर हुए प्रसन्न

भगवान शंकर ने सप्तिऋषों द्वारा, जब देवी पार्वती जी के संबंध में श्रवण किया, तो वे देवी पार्वती जी का भक्ति भाव जानकर अत्यंत प्रसन्न हुए। सप्तिऋष इसके पश्चात अपने धाम चले गये, और भगवान शंकर समाधि में लीन हो गए।

गोस्वामी जी इस प्रसंग के तुरन्त बाद एक तारक नाम के असुर की कथा का आरम्भ करते हैं-

‘तारकु असुर भयउ तेहि काला।

भुज प्रताप बल तेज बिसाला।।

तेहिं सब लोक लोकपति जीते।

भए देव सुख संपति रीते।।’

अर्थात उसी समय तारक नाम का एक ऐसा असुर हुआ, जिसकी भुजाओं का बल, प्रताप और तेज की कोई सीमा नहीं थी। उसका पराक्रम ऐसा था, कि उसने सब लोकों और लोकपालों को जीत लिया था। देवताओं के सभी सुख और सम्पत्ति उनसे छिन गए थे। देवता क्या करते? हारकर वे सब एकत्र होकर ब्रह्माजी के पास पहुँचे। ब्रह्माजी के समक्ष सबने अपने दारुण व्यथा रखी। हालाँकि देवता लोग सामान्यतः कभी भी ब्रह्माजी के श्रीचरणों में नहीं जाते थे। किंतु आज आपदा आन पड़ी, तो सब झट से एकत्र हो गए। ध्यान आया, कि सबसे वृध व श्रेष्ठ तो ब्रह्माजी जी हैं। उन्होंने सृष्टि की उत्पत्ति की है। अगर तारकासुर के अत्याचारों से सृष्टि ही त्रस्त हो गई है, तो इसकी सबसे अधिक चिंता, ब्रह्माजी के सिवा ओर भला किसे होगी? इसलिए ब्रह्माजी को समर्पित होना ही उत्तम निर्णय होगा। यह सोच कर सभी देवता गण ब्रह्माजी के समक्ष प्रस्तुत हुए।

ब्रह्माजी ने भी देखा, कि स्वार्थ आन पड़ा तो देवता लोक मेरे चरणों में आन पड़े। हालाँकि ब्रह्माजी देवताओं को लताड़ भी सकते थे, तुम लोग आठों पहर विषय भोगों में लिप्त रहते हो, ओर आज विपदा सामने आई तो हमारे पास आ धमके? किंतु ब्रह्माजी जी ने उन्हें खरी-खोटी सुनाने की बजाये, उनपर दया की। देवताओं का दुख ब्रह्माजी से देखा न गया।

संसार में भी ऐसा ही देखने को मिलता है। जीव को अपने विषय भोगों के रसास्वादन से ही समय नहीं मिलता। भगवान क्या है, कहाँ रहता है, इससे उसको कोई वास्ता ही नहीं होता। जीवन में सुख, सुविधा व अन्य संसारिक उपलिब्धयाँ प्राप्त हो जाना ही उसके लिए जीवन का लक्षय हैं। संतों की सभा, पून्य अथवा निर्बल जीवों की सेवा इत्यादि से उसे काई लेना देना नहीं होता। कोई उन्हें समझाना भी चाहे, तो वे उसे हँस कर टाल देते हैं। कई तो उपहास तक भी करते हैं। लेकिन वहीं अगर उनके जीवन में कोई विपदा आन पड़े, तो वे अत्यंत व्याकुल हो उठते हैं। वे किसी भी प्रकार से अपने सुखों के साधनों से वंचित नहीं होना चाहते हैं। इसके लिए सबसे पहले तो वे अपने बल का प्रयोग कर विपत्ति को टालने का प्रयास करते हैं। किंतु जब वे स्वयं को इसमें विफल पाते हैं, तो किसी ऐसी शक्ति अथवा व्यक्ति के समक्ष नत्मस्तक होते हैं, जो उन्हें इस विपदा से निकाल सके।

देवताओं के समक्ष उनकी विपदा से तारने वाले तारनहार ब्रह्माजी थे। इसीलिए सभी देवता उन्हें नत्मस्तक थे। ब्रह्माजी ने सोचा, कि देवता भले कितने भी विषयी व स्वार्थी ही क्यों न हों, किंतु जैसे तैसे भी, कष्ट के समय पुकारते तो भगवान को ही हैं। अगर हम ही इनके पक्ष व सहायता में नहीं खड़े होंगे, तो फिर ये लोग कहाँ जायेंगे?

ऐसा विचार कर ब्रह्माजी ने कहा, अगर आप सब लोग चाहते हैं, कि तारकासुर मारा जाये, तो आपको एक ऐसा कार्य करना पड़ेगा, जो थोड़ा विषम लगता है। देवताओं ने कहा, कि आप उपाय बतायें तो सही, हम ऐड़ी चोटी का बल लगा देंगे, लेकिन उपाय सिद्ध अवश्य करके रहेंगे। तब ब्रह्माजी ने कहा-

‘सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।

संभु संभूत सुत एहि जीतइ रन सोई।।’

अर्थात तारकासुर का वध करने वाला अगर देखना चाहते हो, तो वह भगवान शंकर के वीर्य से उत्पन्न होगा। अब समस्या यह थी, कि श्रीसती जी के निधन के पश्चात, भगवान शंकर तो निरंतर समाधि व वैराग्य में ही रहते हैं। वे भला विवाह के लिए क्यों तत्पर होंगे? तो यही कठिन कार्य करने का बीड़ा देवताओं ने उठाना था। किंतु देवताओं में किसी में ऐसा भक्ति भाव व तप नहीं था, जिसके बल से वे भगवान शंकर को उठा सकें। यह बात ब्रह्माजी भी भली भाँति जानते थे। इसलिए उन्होंने देवताओं को उन्हीं के चरित्र के अनुसार उपाय बताया। जिससे कि वे भगवान शंकर की समाधि को तोड़ने में सफल हो पाते।

क्या था वह उपाय, जानेंगे अगले अंक में—(क्रमशः)—जय श्रीराम।

Related posts

Leave a Comment