आबिद सुरती (89)…”डब्बूजी” के जनक का बेशक दिग्गज कार्टूनिस्ट के रूप में ही पहला परिचय है, लेकिन इकलौता कतई नहीं। रंगों की दुनिया से ऐसे खेले कि पूरा घर ही रंग डाला। पत्रकार रहे, कई उपन्यास लिखे, फिल्मों की पटकथाएं लिखीं, नाटक लिखे। युवाओं के बीच प्रेरक वक्ता हैं और पानी की एक-एक बूंद बचाने वाले जलयोद्धा भी।
शनिवार को इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में बगैर लाइट के दरवाजा खुला रखकर सोफे पर बैठे हैं…। (जी, यहां बिजली की लाइन बदली जो जा रही है।) प्रो. अजय जैतली के दरवाजे पर खटखट करते ही अंधेरे छोर से आवाज आती है…हां-हां आइए। फिर, परिचय का द्वार खुलते ही आत्मीयता से पहले हाथ और फिर गले तक मिले। बातों का सिलसिला भी चल निकला…।
डब्बू कहां से आया…द्वितीय विश्व युद्ध से लौटे सैनिकों से। वह ट्रेन से गुजरते तो विदेशी कॉमिक्स पढ़कर फेंक देते। उन्हीं में से मिक्की माउस को देखा..आकार-प्रकार समझा और फिर बन गया डब्बूजी। तब, अखबार में एक कार्टून के 15 रुपये मिलते थे। घर 150 रुपये में चल जाता था।
कार्टून की दुनिया…टीवी के कार्टून ने पत्र-पत्रिकाओं के कार्टून की दुनिया समेट दी। व्यंग्य की धार घटी और जनता की चाह भी। वर्ना दौर यह भी था कि एक कार्टून न छपे तो अखबारों के दफ्तरों में फोन पर फोन आने लगते थे।