डॉ कुसुम पांडेय
बहुत बार सुना है… “उम्र पचपन की, पर दिल बचपन का” अब तो बहुत हद तक यह बात सही भी लगने लगी है।भले ही अभी उम्र पचपन की नहीं हुई है लेकिन फिर भी बचपन तो लगता है जैसे कभी खत्म नहीं होता बस…. जिम्मेदारियों के परदे से हम उसे ढक लेते हैं और जैसे जैसे यादों का झोंका आता है तो परदे के हल्के से सरकते हैं बचपन वापस झांकने लगता है।
बचपन जिसमें बारिश के पानी में कागज की कश्ती चलाकर हम खुशी से उछल पड़ते थे। ऑरेंज वाली टॉफी भी चॉकलेट से बढ़कर स्वादिष्ट लगती थी। मां के हाथ के बने खाने का स्वाद क्या कोई स्टार होटल दे पाएगा???? त्योहारों पर नए कपड़े पहन कर, दो चोटी बनाकर इतराते हुए घूमते तो मम्मी पापा यही कहते कि हमारी बिटिया तो बिल्कुल परी जैसी लग रही है, परी तो हमने कभी देखा नहीं,पर हमेशा अपने जैसी ही तो महसूस किया।
पापा की नौकरी ऐसी थी कि जगह जगह तबादला होता रहता था और वह सरकारी मकानों में रहना महलों में रहने के समान ही लगता था। इस हद तक पसंद था कि अपना घर भी हमने उसी डिजाइन से बनवाया है। भले इंजीनियर ने कितना टोका की अब यह डिजाइन पुराना हो चुका है लेकिन हमारे लिए तो बस वही पहली और आखिरी पसंद बन चुका था और आज भी वही पसंद है यह भी सच है।
आज लगभग 15 साल बाद फिर उसी मंजर को जीने का अवसर मिला। पति का तबादला और वही सरकारी आवास। भले ही आवास बहुत पुराना हो चुका है। आधुनिक सुविधाएं नहीं है, फिर भी मेरे तो बीते कल का महल है।
आंगन में लगी श्यामा तुलसी, फूलों से लदे गुड़हल के पेड़, खेत में लगी तरह-तरह की सब्जियां, वो सोंधी मिट्टी की खुशबू … चिड़ियों का पेड़ों पर चहचहाना, वो बंदरों का एक डाल से दूसरी डाल पर कूदते जाना, पेड़ पर लगे अमरुद को खुद डाली झुका कर तोड़ कर खाना, सब कुछ तो वापस बचपन जैसा ही लगा बस कमी तो मम्मी पापा की लगी।
बचपन हर गम से बेगाना होता है क्योंकि हमारा बचपन सजाने की जिम्मेदारी तो मम्मी पापा की होती है। हमारे लिए तो बस सुनहरी यादों में बदल जाते हैं।
बचपन और पचपन की समानता इसलिए भी जान पड़ती है क्योंकि पचपन में भी जिम्मेदारियां कुछ कम होने लगती हैं। बच्चों को भी नई उड़ान मिलने लगती है। पारिवारिक जिम्मेदारियों से अपने लिए भी कुछ वक्त हम चुरा लेते हैं। कभी कभी मौका पाकर दुपहरी में लंबी चादर तान लेते हैं। अलसाये से उठते हैं फिर शीशे में चेहरा देखकर मुस्कुरा देते हैं कि चलो कोई बात नहीं कभी-कभी तो अपने लिए भी जीना चाहिए।
बालों में दिखती चांदनी अच्छी लगती है। वैसे तो आजकल बाल डाई करने का फैशन है। अब बालों से उम्र का पता नहीं चलता लेकिन कभी-कभी चांदी जैसे बाल भी सुंदरता बढ़ाने में सहयोग करते हैं।
चेहरे पर हल्की हल्की पड़ती झुर्रियां संजीदगी का एहसास कराती हैं। तो कभी-कभी बूढ़े होने का भी आभास होने लगता है, पर अब उम्र का हर लम्हा जीने का आनंद लेने का मन करता है। मन इस सत्य को स्वीकार कर लेता है कि असली सुंदरता मन की होती है तन की सुंदरता तो बस क्षणिक होती है।
जैसे बच्चों का मन निर्मल और पवित्र होता है। वैसे ही धीरे-धीरे उम्र के साथ हमारे राग, द्वेष ईर्ष्या, अहंकार, लोभ,मोह आदि से भी मन निर्मल और पवित्र होने लगता है।
मन धीरे-धीरे यह मान लेता है कि मुट्ठी बांध के आए हैं और मुट्ठी खोल कर जाना है और जब सारे सत्य हमारे सामने हैं तो फिर क्यों ना भयमुक्त होकर पचपन में भी सुखद बचपन ही दिया जाए।
“सीखने की कोई उम्र नहीं होती,
चलो बीते जीवन से फिर सीखा जाए
बचपन कभी नहीं जाता
चलो मुस्कुराते हुए
अब पचपन को जिया जाए।