चिलबिल का पेड़

डॉ कुसुम पाण्डेय

मन की बात में प्रधानमंत्री  के किस्सा, कहानी की बात सुनकर बचपन की यादें ताजा हो गई। जब आंगन में सबका बिस्तर लगता थाऔर जो बड़ा होता… अगर मम्मी का मन नहीं है, तो भाई बहनों में जो बड़ा होता, वह कहानी सुनाता…
यह एक नियम सा था कि बिना कहानी सुने सोना ही नहीं है।

धीरे धीरे सब बड़े होते गए तो हमें खुद पढ़ने के लिए कहानी की किताबें मिलने लगी जिसमें से मुख्यता हितोपदेश, पंचतंत्र, चंपक, नंदन, चाचा चौधरी, पिंकी आदि रही, जिसे पढ़कर मन को बहुत अच्छा लगता था।

फिर समय बीतने लगा… अब उम्र आ गई उपन्यास पढ़ने की तो सबसे पहला उपन्यास “मुंशी प्रेमचंद का निर्मला” पढ़ा जिसे रजाई में छुपाकर पढ़ती थी क्योंकि तब उपन्यास पढ़ना बुरा माना जाता था फिर और बड़े होने पर पता चला कि बुरे उपन्यास दूसरी तरह के होते हैं, हालांकि  अच्छा साहित्य पढ़ने के बाद कभी बुरा पढ़ने की रुचि भी नहीं थी।

कहानी, किस्से की बातें चली तो चिलबिल का पेड़ भी याद आ गया जो था तो हाते में लेकिन आंगन से दिखता था और जब चिलबिल के फल उड़ते तो हम सब बच्चे इकट्ठा करके ऐसे शौक से खाते मानो काजू बादाम खा रहे हैं। हमें आज भी याद है कि गर्मियों में जब लू चलती थी तो खूब चिलबिल उड़ती थी। शाम को जब आंगन में झाड़ू लगती तो ढेर सारी चिलबिल इकट्ठे हो जाते और हमारे घर में जो काम करते थे वह झोले में भरकर अपने घर ले जाते थे कि उनके बच्चे बहुत शौक से खाते हैं। मुझे लगता है कि हमारी उम्र के तो सभी लोगों ने चिलबिल का स्वाद जरूर लिया होगा।

जब हम मां पापा बने तो हमें भी अपने बच्चों को कहानियां सुनानी पड़ी और मेरी हर कहानी में चिलबिल का पेड़ और उसके बीज जिसे हम चिरौंजी की तरह भी खाते थे उन्हें जरूर बताती।

हां सौभाग्य से अभी भी मेरे निवास के पास एक चिलबिल का पेड़ है जो मुझे बचपन की याद दिलाता है।

मुझे लगता है कि किसी भी बच्चे का बचपन बिना किस्सा कहानियों के नहीं बीता है। बस धीरे धीरे उसका स्वरूप बदलता जा रहा है। पहले हमें ज्यादातर कहानियों के द्वारा सदाचार की शिक्षा दी जाती थी जो कि चरित्र निर्माण के लिए अत्यंत आवश्यक होती है।

आज के दौर में बहुत कुछ ज्यादा ही अंग्रेजी नुमा हो गया है। अब बच्चों को टीवी में कार्टून देखने में ज्यादा मजा आता है और माता-पिता भी जिम्मेदारी मुक्त होकर अपने-अपने को स्मार्ट बनाने के लिए फोन में व्यस्त हो जाते हैं। लेकिन यह सही बात नहीं है। अगर हम बचपन से ही अपने बच्चों को अपनी सभ्यता, संस्कृति को  कहानियों, किस्सों के माध्यम से सिखा दें जो कि बच्चों के जीवन में बहुत उपयोगी सिद्ध होगा।

“मन की बात” के माध्यम से यह बहुत ही उपयोगी बात याद दिलाई गई है। और हम सबकी जिम्मेदारी है कि अपनी आने वाली पीढ़ियों को हम इसका सुख अवश्य दें। मुझे लगता है कि बचपन में नानी, दादी का महत्व कहानी और किस्सों की वजह से ज्यादा प्रिय लगता था, क्योंकि कहानी सुनाने के लिए ज्यादातर यही लोग आगे रहते थे, लेकिन अब तो सब कुछ बदल गया है, तो चलिए इतने बदलावों में एक सकारात्मक बदलाव और करते हैं और वह है किस्सा, कहानियों को अपने जीवन का हिस्सा बनाते हैं। हमें बच्चों को भी कहानी सुनाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए जिससे यह परंपरा आगे ही बढ़ती जाए।

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