1947 से 2023 तक, पिता से बेटे तक, हमेशा भारत के खिलाफ खड़ा रहा है कनाडा

भारत और कनाडा के बीच हमेशा से तनाव भरे संबंध ही रहे हैं। कश्मीर से लेकर परमाणु परीक्षण तक के मौकों पर कनाडा भारत के खिलाफ ही खड़ा नजर आया है। भारत और कनाडा के बीच संबंधों में तनाव की नींव 1947 के दौर से ही शुरू हो गई थी। आजादी के एक साल बाद 1948 में कनाडा की तरफ से कश्मीर में जनमत संग्रह को अपना समर्थन दे दिया गया था। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो से पहले उनके पिता और कनाडा के 15वें पीएम पियरे इलियट ट्रूडो थे। कनाडा में खालिस्तानी तत्वों को गले लगाने के साथ जस्टिन ट्रूडो ने यह सुनिश्चित किया कि भारत के साथ संबंध टूट जाएं। संबंधों में गिरावट का कारण उनका निराधार दावा था कि खालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के पीछे भारत का हाथ था। जनवरी 1971 में पियरे ट्रूडो ने पांच दिनों के लिए भारत का दौरा किया। उन्होंने ऊँट की सवारी की, एक बैल को सहलाया, गंगा नदी पर चढ़े और एक लोकोमोटिव कारखाने में गए और ताज महल देखा, जैसा कि कनाडाई विदेश सेवा के अधिकारी गार पार्डी ने लिखा था, जिन्होंने यात्रा के दौरान नई दिल्ली में सेवा की थी।

कनाडा ड्यूटेरियम यूरेनियम (CANDU) रिएक्टर ने परमाणु ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए असंवर्धित यूरेनियम के उपयोग की अनुमति दी। यह भारत जैसे विकासशील देशों के लिए फायदेमंद था, जिनके पास संवर्धन सुविधाएँ नहीं थीं। संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा ने सस्ती परमाणु ऊर्जा और कनाडाई-भारतीय रिएक्टर, यूएस या सीआईआरयूएस परमाणु रिएक्टर के लिए भारत के नागरिक परमाणु कार्यक्रम पर सहयोग किया। CIRUS रिएक्टर जुलाई 1960 में चालू किया गया था और होमी जहांगीर भाभा के नेतृत्व में कनाडाई सहयोग से बनाया गया था। तत्कालीन कनाडाई प्रधान मंत्री पियरे ट्रूडो ने कहा कि कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए था और यदि भारत ने परमाणु उपकरण का परीक्षण किया, तो कनाडा अपने परमाणु सहयोग को निलंबित कर देगा। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोध पत्र के अनुसा 1974 में पियरे ट्रूडो की यात्रा के तीन साल बाद, भारत ने CIRUS रिएक्टर से प्लूटोनियम का उपयोग करके अपने पोखरण परीक्षण स्थल पर एक परमाणु हथियार का विस्फोट किया। भारत ने कहा कि यह एक शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट था और इसने कनाडा के साथ समझौते की शर्तों का उल्लंघन नहीं किया। लेकिन कोलंबिया विश्वविद्यालय के शोध पत्र के अनुसार, पियरे ट्रूडो के कनाडा ने भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के लिए सभी समर्थन वापस ले लिया और भारत में एक अन्य रिएक्टर पर काम कर रहे कनाडाई अधिकारियों को वापस बुला लिया।

पियरे ट्रूडो और कनिष्क ब्लास्ट

सिख 19वीं सदी के अंत से कनाडाई मोज़ेक का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। 1970 के दशक के मध्य में इमीग्रेशन एक्ट में बदलाव के साथ उनकी संख्या में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई। 2018 में ओटावा सिटीजन में एक सेवानिवृत्त कनाडाई विदेश सेवा अधिकारी गार पार्डी ने कहा कि अब, 7.7 लाख से अधिक की संख्या के साथ सिख कनाडा की कुल आबादी का लगभग 2 प्रतिशत हैं और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली समुदाय हैं। फिर पंजाब के आतंकवादी भी थे जिन्होंने 1980 के दशक में आतंकवाद पर कार्रवाई के बाद कनाडा में शरण ली थी। ऐसे ही एक आतंकवादी तलविंदर सिंह परमार था। 1981 में पंजाब में दो पुलिस कर्मियों की हत्या करने के बाद वह कनाडा भाग गया। खालिस्तानी संगठन बब्बर खालसा के सदस्य परमार ने विदेशों में भारतीय मिशनों पर हमले और सांप्रदायिक हत्याओं का ऐलान किया। भारत ने अनुरोध किया कि परमार को प्रत्यर्पित किया जाए लेकिन पियरे ट्रूडो के नेतृत्व वाली सरकार ने अनुरोध ठुकरा दिया। इतना ही नहीं, भारत से भेजी गई खुफिया चेतावनियों को भी अनसुना कर दिया गया।  भारत की खुफिया एजेंसियों ने 1 जून 1985 को कनाडाई अधिकारियों को एक जरूरी संदेश भेजा था, जिसमें खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा संभावित हवाई हमले के खिलाफ सुरक्षा उपायों की मांग की गई थी। फिर ऐसा हुआ। 23 जून, 1985 को टोरंटो से ब्रिटेन के लंदन जा रही एयर इंडिया फ्लाइट 182 (कनिष्क) में दो सूटकेस में बम रखा गया था, जिससे विमान में सवार सभी 329 यात्रियों की मौत हो गई थी। मारे गए लोगों में से अधिकांश कनाडाई थे और कनिष्क बम विस्फोट कनाडा के इतिहास में सबसे भयानक आतंकवादी हमला है। जिस परमार को पियरे ट्रूडो ने बचाया था, कनिष्क बमबारी का मास्टरमाइंड था। 1992 में वो पुलिस मुठभेड़ में मारा गया। इस साल जून में कनाडा में विभिन्न स्थानों पर परमार के सम्मान में पोस्टर देखे गए थे। कनिष्क बम विस्फोट के लिए तलविंदर सिंह परमार सहित गिरफ्तार किए गए सभी लोगों को छोड़ दिया गया और केवल एक व्यक्ति को दोषी ठहराया गया।

पियरे ट्रूडो और क्यूबेक क्रैकडाउन

खालिस्तानी चुनौती के प्रति नरम कनाडाई प्रतिक्रिया 1982 से ही भारतीय राजनेताओं के निशाने पर रही है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसके बारे में प्रधान मंत्री पियरे ट्रूडो से शिकायत की थी। हालांकि उन्होंने खालिस्तानी आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की, लेकिन उनके कार्यकाल को क्यूबेक में फ्रांसीसी अलगाववादी आंदोलन की कार्रवाई और हार के रूप में चिह्नित किया गया था। फ्रांसीसी-भाषी आबादी कनाडा से अलग होने की कोशिश कर रही थी, लेकिन पियरे ट्रूडो ने 1960 के दशक के अंत और 1970 के दशक की शुरुआत में वैध लोकतांत्रिक आंदोलन के खिलाफ कार्रवाई की। नागरिक स्वतंत्रताएँ निलंबित कर दी गईं और सैनिकों को क्यूबेक में स्थानांतरित कर दिया गया। घरों और कार्यालयों पर बिना रोक-टोक छापे मारे गए और 500 से अधिक लोगों को हिरासत में लिया गया।

ट्रूडो की राजनीतिक मजबूरी

खालिस्तानियों पर जस्टिन ट्रूडो की नीतियां उनके पिता की नीतियों को दर्शाती हैं। ट्रूडो जूनियर की राजनीतिक मजबूरियां भी हैं। उनकी सरकार को जगमीत सिंह के नेतृत्व वाली न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (एनडीपी) का समर्थन प्राप्त है। साल 2019 में कनाडा में आम चुनाव हुए थे। ट्रूडो ने चुनाव में जीत तो दर्ज कर ली थी लेकिन वो सरकार नहीं बना सकते थे। उनकी लिबरल पार्टी ऑफ कनाडा को 157 सीटें मिली थी। विपक्ष की कंजरवेटिव पार्टी को 121 सीटें हासिल हुई थीं। ट्रूडो के पास सरकार बनाने के लिए बहुमत नहीं था। सरकार बनाने के लिए उन्हें 170 सीटों की दरकार थी। जिसकी वजह से ट्रूडो की पार्टी ने कनाडा के चुनाव में 24 सीटें हासिल करने वाली न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (एनडीपी) का समर्थन लिया। इस पार्टी के मुकिया जगमीत सिंह है जो खालिस्तान आंदोलन के बड़े समर्थक हैं। ट्रूडो के लिए सत्ता में रहने का मतलब जगमीत को खुश रखना है। बहुमत के आंकड़ों के लिहाज से उनके लिए जगमीत की पार्टी का समर्थन बेहद जरूरी है।

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