हिन्दी कविता : ये सब्जी मंडी हैं

आग लगी सब्जी मंडी में छाई है
महंगाई , कांदा सौ के पार हो गया
सत्तर में आलु आई , लाल टमाटर
जब देखो तब करता हैं मनमानी,
भाव जो इनका सुन लो तो याद
आजाये सब को नानी ,,,,,,,,,2
अब आवो थोड़ा भिंडी दूधी को
हाथ लगालो ,  तुरीया गलका
औऱ करेला  के भाव का पता
लगा लो ,होश उड़ाने के खातिर
ये सब भी खड़े तैयार , ये सब्जी
बाजार हैं भइया ,,,,,,2
धनियां मिर्ची अदरक पुदीना
अपना रंग दिखाए , जब मर्जी
में इसके आये , ये आसमान पर
चढ़ जाए, लसन भी इतराकर
देखो खाने का स्वाद  बिगाड़े
महंगाई में ये भी आता यारो सब से आगे,,,,,,,2
फँसी चौली हरभरा वटाना
और गवार इतराए  सेम पापड़ी
के संघ शेंगा अपना कलर दिखाए
ये भी यारो कम नही हैं,
रह रह कर जनता को अपने
बढ़े भाव से डराए हैं हिम्मत
यदी हमे खाने की तो कोई
हमारी कीमत चुकाए,,,2
अब पत्ते वाली हरि सब्जी से चलो
करते हैं मुलाकात, इनको भी
कुछ कम मत आंको , जरा
करलो इनकी भी अब बात,
हवा पानी का जब रुख बदले
तब ये भी मुड़ में आजाते हैं,
आसमॉन पर चढ़ कर बैठे
थाली से गायब हो जाते हैं,,,,,,2
अब सलाद की आई बारी ,
ये भी खड़ा है , लेकर महंगाई की आरी,
ककड़ी गाजर मूली लिम्बु संघ
शलगम औऱ सेलरी पत्ता ये
भी खूब उछलते हैं , रह रह कर
 भाव इनके भी बदलते है,
अच्छे खासे का होश उड़ा दे ,
सब को ये अपना रंग दिखादे ये
 सब्जी मंडी हैं , भाई,,,,,,,3
नोट पांच सौ की छोटी पड़ जाती
जब हम सब्जी मंडी में जाये,
हाथ मे वजन नही बढ़ता हैं
जेब हल्की हो जाती हैं ,
हालत बहुत खराब है ,
ये सब्जी बाजार हैं,,,,2
कवी : रमेश हरीशंकर तिवारी
                 ( रसिक  बनारसी  )

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