सोशल इंजीनियरिंग के नए वर्जन का चमत्कार, इस तरह काम कर गई राहुल-अखिलेश की कवायद

साल 2017 का विधानसभा चुनाव साथ लड़ने का राहुल और अखिलेश की जोड़ी का उपक्रम शायद रिहर्सल था जो इस बार कमाल कर गया। ऐसी उम्मीद शायद खुद इस गठजोड़ को भी नहीं रही होगी। 2014 में लोकसभा चुनाव में भी ऐसा अनुमान गलत साबित हुआ था जब भाजपा को उम्मीद से कहीं ज्यादा अप्रत्याशित रूप से 71 सीटें मिल गई थीं।बड़े चेहरे की चकाचौंध पर इतराती भाजपा ने जहां इस अति आत्मविश्वास से टिकट वितरण किए कि वो जिसे चाहेंगे जिता लेंगे, वहीं अखिलेश ने इसमें सोशल इंजीनियरिंग का पूरा ध्यान रखा। मुस्लिमों और यादवों को बिना सोचे-समझे और अनुपात से ज्यादा टिकट देने की गलती इस बार नहीं दोहराई। साथ ही इससे बचे टिकट पिछड़ों व दलितों को देकर उन्हें अपनी तरफ कर लिया। इस इंजीनियरिंग का ऐसा जोर चला कि बड़े-बड़े मंत्री तक धराशाई हो गए और मार्जिन की लड़ाई लड़ रहे नरेंद्र मोदी की जीत पर भी यह असर डाल गया।

एक गौरतलब बात यह रही कि पूरा जोर लगाने के बावजूद धार्मिक ध्रुवीकरण न किया जा सका, अलबत्ता मुस्लिम वोट जरूर और मजबूती से सपा का बेस वोट बैंक बना रहा। जाति तुरुप का पत्ता रही। अखिलेश ने इसे समझदारी से चला। भाजपा समर्थक मानी जानी वाली पिछड़ी व दलित जातियों को आगे बढ़कर टिकट दिए। जातीय समीकरणों को ध्यान में रखते हुए सामान्य सीटों तक पर दलित प्रत्याशी उतार दिया। बेस वोट बैंक से प्रत्याशी की जाति का वोट जुड़ा तो नतीजा सामने है।

इंडिया गठबंधन भीषण गर्मी के बीच आमजन को महंगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दों की तपिश महसूस कराने में कामयाब रहा। साथ ही पवित्र पुस्तक संविधान से छेड़छाड़ के मुद्दे को इतना जज्बाती बना दिया कि अमूमन पिछड़ों के साथ आने से परहेज करने वाले दलित तबके ने इस बार राह बदल ली। आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने के बाद अपने कोटे को लेकर आशंकित समुदाय ने भी अपना मन बदला और कहीं-कहीं भाजपा का साथ छोड़ गया। इस चुनाव की एक बेढब बात यह रही कि ज्यादातर मामलों को मुद्दा बनाकर जनता के बीच छोड़ा जा रहा था और वास्तविक मुद्दे दरकिनार करने की कोशिश की गई। यह तरीका भी वोटर को अखरा।

बेरोजगारी के मारे पूर्वांचल के युवा अग्निवीर भर्ती पर सबसे ज्यादा मुखर दिखे और इस हिस्से में सत्तारूढ़ दल को सबसे जोर का झटका लगा। राम मंदिर का मुद्दा कितना चला, इस सवाल का जवाब यह है कि भाजपा अयोध्या मंडल की सभी सीटें हार गई। अयोध्या की ही जीती हुई सीट गवां दी। चुनाव तीन महीने पहले होते तो शायद प्राण प्रतिष्ठा की लहर वोटों में बदलती। अधिक सीटें जीतने पर यूपी से योगी को हटाया जा सकता है, इस नैरेटिव ने भी असर डाला।इंडिया गठबंधन अपनी कुछ खूबियों से कामयाब हुआ तो भाजपा को कुछ गलतियों का खामियाजा भुगतना पड़ा। राज्य की राय किनारे कर खराब छवि वाले कई सांसदों का टिकट काटने से परहेज किया गया। कई सीटों पर सांसद विरोधी लहर को नजरअंदाज किया गया। इससे संगठन के मनोबल पर असर पड़ा। बीच चुनाव संघ के सहारे को खारिज करने का राष्ट्रीय अध्यक्ष का बयान स्वयंसेवकों को नागवार गुजरा और वे चुनाव में जुटे तो लेकिन मन से नहीं। संगठन को भी गुमान रहा कि सरकार तो अपनी ही बन रही, लिहाजा कार्यकर्ता पहले की तरह उत्साहित नहीं दिखे और घर से निकल कर वोटर को घर से न निकाल सके।

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