युद्ध क्यों…

जीत कर क्या जीत लोगे,
हार है  निश्चित    तुम्हारी ।
मासूम दिल की आह लेकर,
विध्वंश मानवता ही  होगी।

किस जीत का है ख्वाब तुमको,
हार  हर करुणा से तुम्हारी।
उस शक्ति के एहसास का क्या,
जो अज्ञान का उद्भव करा दे।
खिलखिलाती बस्तियों  को,
श्मशान सा  मरघट बनादे ।
जीत कर क्या जीत लोगे,
हार है  निश्चित    तुम्हारी ।

न जाने कितने  दर्द पनपे,
बिछड़ गए अपनों से अपने।
उन आहो की दर्द तुम्हारी होगी,
हर  जीत से अभिशाप लोगे।
हर सुबकियों को जीत कर,
क्या जीत की खुशिया लिखोगे।
अश्क आँखों में जगाकर,
मृत पंखों की आगाज सुनकर,
जीत कर भी हार लोगे।
जीत कर क्या जीत लोगे,
हार है  निश्चित    तुम्हारी ।

मृत्यु दृश्यों को नीरख सब  मौन है,
विध्वंश की आहट में सोती ये धरा।
हमदर्द सब दर्शक बने यू,
साथ है अनजान बनकर।
वो  शक्ति है तो शक्ति क्या,
खुद बच रहे है मित्र बनकर।
मासूम क्रंदन कर रहे है,
निशब्द होती ये मानवता।
उन कराहती जिंदगियों को,
जीत कर तुम क्या करोगे।
स्मृति पटल पर अंकित रहेगी,
हर दर्दों की ये चिनगारी।
जीत कर क्या जीत लोगे,
हार है  निश्चित    तुम्हारी ।

संजय अस्थाना

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