आर.के. सिन्हा
संसद ने जब से नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) को पारित किया है, देश के मुसलमानों का एक हिस्सा नाराज है। कम से कम जगह–जगह धरने प्रदर्शन कर यह बताने की कोशिश की जा रही है कि वे खफा हैं । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बार–बार भरोसा देने के बाद भी कि इससे देश के मुसलमानों को भयभीत होने की कतई आवश्यकता नहीं है, वे शांत नहीं हो रहे हैं। वे सड़कों पर उतरे हुए हैं। अब दिल्ली में ही देख लीजिए कि मुसलमान औरतें शाहीन बाग में सड़क को घेर कर बैठी हैं। उन्हें इस बात की रत्तीभर भी चिंता नहीं है कि उनके धरने के कारण राजधानी के लाखों लोग रोज अपने गंतव्य स्थलों पर कई घंटे देर से पहुंच रहे हैं। खैर, धरना देना तो उनका मौलिक अधिकार है। पर याद नहीं आ रहा कि देश के मुसलमानों ने कभी महंगाई, बेरोजगारी या अपने अपने इलाकों में नए–नए स्कूल, कालेज या अस्पताल खुलवाने आदि की मांगों को लेकर कभी सड़कों पर उतर कर कोई धरना–प्रदर्शन किया हो। आपको भी एक भी इस तरह का उदाहरण याद नहीं आएगा जब मुसलमान अपने मूल और बुनियादी सवालों पर सड़कों पर उतरें हों। क्या इनके लिए महंगाई, निरक्षरता या बेरोजगारी जैसे सवाल अब गौण हो चुके हैं? गुस्ताखी माफ हो लगता है कि देश के मुसलमानों को इनके धार्मिक और सियासी रहनुमा अंधकार युग में बनाये रखना चाहते हैं। ये भी अपने को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। हालांकि इन्हें सीएए के खिलाफ आंदोलन में देश के लगभग सभी प्रमुख विपक्षी दलों के कुछ लोगों का धन बल का साथ और नैतिक समर्थन भी मिल रहा है। लेकिन क्या कभी मुसलमान अपने समाज के दलितों, आदिवासियों या समाज के अन्य कमजोर वर्गों के हितों में आगे आए हैं? कभी नहीं। ये बात–बात पर गुजरात दंगों की बात करना भी नहीं भूलते। पर वे कभी गोधरा के दिल दहलाने वाले नर–संहार को याद नहीं करते जिसमें साठ तीर्थयात्रियों को ट्रेन के डब्बे में जिन्दा जला दिया गया था। क्या ये कभी कश्मीर में इस्लामिक कट्टरपंथियों के हाथों मारे गए पंडितों के लिए भी लड़े? क्या दिल्ली में जब 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों का खुलेआम नरसंहार हो रहा था, तब क्या ये सिखों को बचाने के लिए आगे आए थे? कतई नहीं। इन्हें अपने को तो हमेशा विक्टिम की स्थिति में रखना– बताना अच्छा लगता है। ये सिर्फ अपने अधिकारों की बातें करते हैं। ये कर्तव्यों की चर्चा करते ही हत्थे से उखड़ जाते हैं।
बाकी की तो बात छोड़ दें, अब तो स्थिति इतनी शोचनीय नजर आती है कि मुसलमान समाज के बड़े असरदार लोग भी अपने पसमांदा मुसलमानों की भी कतई फिक्र नहीं करते। पसमांदा यानी जो पिछड़ गए। अगर आबादी के हिसाब से देखें तो अजलाफ़ (पिछड़े) और अरजाल (दलित) मुसलमान भारतीय मुसलमानों की कुल आबादी का कम–से–कम 85 फीसद हैं। अपने को जातिविहीन कहने वाला मुसलमान समाज जाति के भयंकर कोढ़ में फंसा हुआ है। इधर पसमांदा मुसमानों के हक में तो कोई बात ही नहीं होती। मुस्लिम रहनुमा उर्दू, अलीगढ़ मुस्लिम विविद्यालय, पर्सनल लॉ इत्यादि पर ही बातें करते हैं। इन मुद्दों पर ही समाज को गुमराह करके और गोलबंदी करके और अपने पीछे गरीब मुसलमानों की फ़ौज