भारतीय स्त्रियों ने सदा ही अपनी योग्यता का लोहा मनवाया

दिनेश तिवारी
माँ की शक्ति जिस स्त्री के पास सदा से थी, वह भी सनातनी स्त्री, जिसने घुटने नहीं टेके ! आज शिवाजी महाराज की बहू की कहानी पढ़िए, जिसने अपने ससुर की आगरा कैद का प्रतिशोध लिया और जहाँ औरंगजेब ने चाहा था कि शिवाजी अपने परिवार से अलग होकर तिल तिल मरें,वहीं औरंगजेब तिल तिल मरा और वह भी अपने अपनों से दूर,पराजित होकर,एक स्त्री से पराजित होकर मरा,आइये एक दुर्लभ गौरव गाथा बताते है।अपने सबसे बड़े शत्रु शिवाजी की असमय मृत्यु एवं उनके पुत्र शम्भा जी को तड़पा तड़पा कर मृत्यु के घाट उतारने वाला औरंगजेब अब निश्चिन्त था कि वह मराठों को हरा देगा और जीवन के अंतिम दिनों में जो स्वयं से वादा किया था कि उत्तर से दक्खन तक वह मुग़ल शासन को स्थापित कर देगा। मगर शिवाजी के छोटे पुत्र ने उसका यह स्वप्न धूमिल कर दिया।औरंगजेब अब दक्खन में बेचैन होने लगा था। उसे बार बार शिवाजी का अट्टाहस याद आ रहा था जिसमें उसने कहा था कि मैं रहूँ या न रहूँ,मराठा कभी भगवा ध्वज झुकने नहीं देंगे।वर्ष 1689 में राजाराम ने छत्रपति तृतीय के रूप में सिंहासन सम्हाला,परन्तु वह मात्र ग्यारह वर्ष ही शासन कर सका और उन ग्यारह वर्षों में भी मुट्ठी भर मराठों ने मुग़ल सेना के सामने समर्पण नहीं किया। वह लड़ते रहे, कभी जीतते, कभी हारते, कभी हारकर जीतते, तो कभी जीतकर हारते,मगर समर्पण नहीं किया। शिवाजी के आदर्श उनके साथ थे। औरंगजेब वर्ष 1683 से ही दक्कन में डेरा डाले था। उसे भान भी नहीं था कि जिस मराठा शासक के लिए उसने आगरा में जाल बिछाया था, वह मरने के बाद उसे दक्कन के जाल में फंस जाएगा, और ऐसे जाल में कि वह अंतिम सांस भी अपनी राजधानी से दूर लेगा।
राजाराम की मृत्यु के उपरान्त औरंगजेब ने चैन की एक बार फिर सांस ली और सोचा कि अब तो शायद सपना पूरा हो! मगर इस बार फिर उसके सपने को शिवाजी के मूल्यों से हार माननी थी. इस बार उसके सामने डटकर राजाराम की विधवा रानी ताराबाई खड़ी हो गयी थी। रानी ताराबाई ने स्वतंत्र मराठा साम्राज्य में साँस ली थी, और उसे पता था कि स्वाधीनता की उन्मुक्त हवा और गुलामी की गंधाती हवा में क्या अंतर है ? उसने अपने पति की मृत्यु का शोक नहीं किया बल्कि निराश मराठा सेना में एक प्रेरणा का संचार किया। उसने अपने पति राजाराम के साथ मिलकर गुरिल्ला युद्ध की सभी तकनीकें सीखी थीं। वह तलवारबाजी, तीरंदाजी, प्रशासन आदि सभी कार्यों में पारंगत थी। उसने पूरे छः वर्षों तक मुग़ल सेना को रोके रखा और औरंगजेब के दक्कन पर अधिकार के सपने को ध्वस्त किया।वर्ष 1707 में दक्कन पर अधिकार की ख्वाहिश लिए औरंगजेब की मृत्यु हो गयी।वह अंतिम पचीस वर्षों तक दक्कन रहा। विडंबना यह है कि उसने यह चाहा था कि शिवाजी अपनी मातृभूमि और परिवार से दूर मृत्यु का ग्रास बनें, उनके परिवार का कोई इंसान उनके साथ न हो, मगर औरंगजेब कण कण में वास करने वाले भगवान के न्याय से शायद परिचित नहीं था,शिवाजी को तो नहीं बल्कि उसे ही अपने जीवन के अंतिम दिन अपने परिवार से दूर, अपनी मिट्टी से दूर कष्ट के जीवन काटने पड़े। उसे इस अंजाम तक पहुंचाने में ताराबाई का योगदान भी काफी था।
वीरांगना नाम सुनते ही हमारे मनोमस्तिष्क में रानी लक्ष्मीबाई की छवि उभरने लगती है। भारतीय वसुंधरा को अपने वीरोचित भाव से गौरवान्वित करने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई सच्चे अर्थों में वीरांगना ही थीं। वे भारतीय महिलाओं के समक्ष अपने जीवन काल में ही ऐसा आदर्श स्थापित करके विदा हुईं, जिससे हर कोई प्रेरणा ले सकता है। वे वर्तमान में महिला सशक्तिकरण की जीवंत मिसाल भी हैं। कहा जाता है कि सच्चे वीर को कोई भी प्रलोभन अपने कर्तव्य से विमुख नहीं कर सकता। ऐसा ही रानी लक्ष्मीबाई का जीवन था। उसे अपने राज्य और राष्ट्र से एकात्म स्थापित करने वाला प्यार था। वीरांगना के मन में हमेशा यह बात कचोटती रही कि देश के दुश्मन अंग्रेजों को सबक सिखाया जाए। इसी कारण उन्होंने यह घोषणा की कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।इतिहास  बताता है कि इस घोषणा के बाद रानी ने अंग्रेजों से युद्ध किया। वीरांगना लक्ष्मीबाई के मन में अंग्रेजों के प्रति किस कदर घृणा थी, वह इस बात से पता चल जाता है कि जब रानी का अंतिम समय आया, तब ग्वालियर की भूमि पर स्थित गंगादास की बड़ी शाला में रानी ने संतों से कहा कि कुछ ऐसा करो कि मेरा शरीर अंग्रेज न छू पाएं। इसके बाद रानी स्वर्ग सिधार गईं और बड़ी शाला में स्थित एक झोंपड़ी को चिता का रुप देकर रानी का अंतिम संस्कार कर दिया और अंग्रेज देखते ही रह गए। हालांकि इससे पूर्व रानी के समर्थन में बड़ी शाला के संतों ने अंग्रेजों से भीषण युद्ध किया, जिसमें 745 संतों का बलिदान भी हुआ,पूरी तरह सैनिकों की भांति अंग्रेजों से युद्ध करने वाले संतों ने रानी के शरीर की मरते दम तक रक्षा किया था।आज के दौर में अब झांसी नहीं झाँसीयों की जरूरत है।
जिन महापुरुषों के मन वीरोचित भाव से भरा होता है, उसका लक्ष्य सामाजिक उत्थान और राष्ट्रीय उत्थान ही होता है। वह एक ऐसे आदर्श चरित्र को जीता है, जो समाज के लिए प्रेरणा बनता है। इसके साथ ही वह अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सदैव आत्मविश्वासी, कर्तव्य परायण, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ठ होता है। ऐसी ही थीं महारानी लक्ष्मीबाई। उनका जन्म काशी में 19 नवंबर 1835 को हुआ। इनके पिता मोरोपंत ताम्बे चिकनाजी अप्पा के आश्रित थे। इनकी माता का नाम भागीरथी बाई था। महारानी के पितामह बलवंत राव के बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक होने के कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी। लक्ष्मीबाई अपने बाल्यकाल में मनु व मणिकर्णिका के नाम से जानी जाती थीं। रानी लक्ष्मीबाई ने सात दिन तक वीरतापूर्वक झांसी की सुरक्षा की और अपनी छोटी-सी सशस्त्र सेना से अंग्रेजों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया। रानी ने खुलेरूप से शत्रु का सामना किया और युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया। वे अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को कसकर घोड़े पर सवार हो, अंग्रेजों से युद्ध करती रहीं। बहुत दिन तक युद्ध का क्रम इस प्रकार चलना असंभव था। सरदारों का आग्रह मानकर रानी ने कालपी प्रस्थान किया। वहां जाकर वे शांत नहीं बैठीं।उन्होंने नाना साहब और उनके योग्य सेनापति तात्या टोपे से संपर्क स्थापित किया और विचार-विमर्श किया। रानी की वीरता और साहस का लोहा अंग्रेज मान गए, लेकिन उन्होंने रानी का पीछा किया। रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं। 18 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया। वे घायल हो गईं और अंतत: उन्होंने वीरगति प्राप्त की। रानी लक्ष्मीबाई ने स्वतंत्रता युद्ध में अपने जीवन की अंतिम आहूति देकर जनता जनार्दन को चेतना प्रदान की और राष्ट्रीय रक्षा के लिए बलिदान का संदेश दिया। जो 19 वीं सदी की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई 21 वीं सदी में सभी महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत है।
पदमावती,ताराबाई,लक्ष्मी बाई,रानी चेनम्मा,दुर्गावती वोहरा(दुर्गा भाभी) कनकलता बरुआ,मातंगिनी हाजरा, बेगम हजरत महल,झलकारी बाई आदि कई भारतीय स्त्रियों की वीरता का वह प्रतीक है। तो सरोजिनी नायडू और लक्ष्मी सहगल,विजयालक्ष्मी पंडित,सुचेता कृपलानी, सावित्री बाई फुले,कमला नेहरू,कमला बहुगुणा, अरुणा आसफ जैसी वीरांगनाओं ने देश की आजादी के बाद भी अतुलनीय भूमिका के माध्यम से महिलाओं की आदर्श बनी थी। जिसकी कहानी हर स्त्री को पता होनी चाहिए। प्रश्न यह है कि यदि भारतीय स्त्री को परदे में रखा जाता था तो यह स्त्रियाँ कहाँ से आईं थीं, जिन्होनें मुग़ल वंश की मजबूत इमारत को ढहा दिया और ब्रिटिश साम्राज्य की नींव कमजोर कर दिया था। देश और प्रदेश के उच्च पदों प्रधानमंत्री,राज्यपाल, मुख्यमंत्री,मंत्री,सांसद, विधायक, आईएएस, आईपीएस, पीसीएस, पीपीएस,डॉक्टर, इंजीनियर,वैज्ञानिक,बीडीओ,इंस्पेक्टर पुलिस सहित प्रमुख नीति नियंताओं की भूमिकाओं का आज योगदान दे रही है। इतना ही नहीं शिक्षा से लेकर व्यापार तक नारी शक्ति आगे बढ़ रही हैं। भारतीय स्त्री कभी भी रुदन करने वाली नहीं रही है। वह चेतनाप्रज्ञ स्त्री रही है,जिसने समाज के सामने एक आदर्श प्रस्तुत किया है। स्त्री का रुदन वाला रूप कभी भारतीय नहीं रहा है। चुनौतियों का डटकर सामना करना ही भारतीय स्त्रियों का स्वभाव रहा है। भारतीय स्त्रियों ने सदा ही अपनी योग्यता का लोहा मनवाया है।

Related posts

Leave a Comment