बन के पिता , पिता के दर्द का
एहसास हो रहा है,
आज मेरा मन , सच में जार जार
रो रहा हैं, दर्द से ये दिल तार तार
हो रहा है,
बन के पिता, पिता के दर्द का
एहसास हो रहा हैं,,,,,,,2
आज पता चल रहा है
तपती धूप मे किस कदर
चलना पड़ता हैं,
दो वक्त की रोटी के लिए
कड़ी धूप में जलना पड़ता है,
कभी कोशो तो कभी मिलो
पैदल चलना पड़ता हैं,,
बन के पिता, पिता के दर्द
का एहसास रहा हैं,,,,,,,,2
घर की छोटी छोटी खुशियां
पिता जी कैसे कमाते थे,
खुद दर्द सह कर हमे वो कैसे हसाते थे,
अक्सर आधी आधी रात को थक कर दबे पांव घर में आकर वो भूखे सो जाते थे
, लेकिन हमारे सामने
सदा मुस्कुराते थे,
आज पिता बन के, पिता के दर्द का एहसास हो रहा हैं,,,,,,,2
पिता सच में अपना हर फर्ज निभाते हैं हो लाख तंगी फिर भी बच्चो की खुशियों के लिए
सदा खुद को लुटाते हैं,बड़ी सहजता से वो लुटकर भी मुस्कुराते हैं ,बच्चो के लिए पिता
हर दर्द हसकर सह जाते है,
आज पिता बनकर पिता के दर्द का एहसास हो रहा हैं,,,,,,,2
किसी ने सच कहा हैं
पिता बन्ना इतना आसान नही हैं
क्यों की कभी उसके कदमों के नीचे जमी तो कभी सर पे आसमान नही होता,
भावनाओ के भवसागर में
बह जाते हैं, सभी को किनारे
पहुंचाते पंहुचाते वो खुद मझधार
में रह जाते हैं,
पिता बनकर पिता के दर्द का आज एहसास हो रहा हैं,
आज मेरा मन फूट फूट कर
जार जार रो रहा हैं,,,,,,,,,2
कवि : रमेश हरीशंकर तिवारी
( रसिक बनारसी )