बड़े दलों की तरह छोटे दल भी निकाय चुनाव की तैयारियों में जुट गए हैं। कुछ दल तो अकेले चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी में हैं, वहीं भाजपा, सपा जैसे दलों के साथ गठबंधन करने वाले दल भी निकाय चुनाव में हिस्सेदारी बढ़ाने को लेकर मोलभाव में जुटे हैं। इन दलों की कोशिश है कि निकाय चुनाव में जितनी अधिक सीट जीतेंगे, लोकसभा चुनाव के उनकी जमीन उतनी ही अधिक मजबूत होगी ।
दरअसल निकाय चुनाव को लेकर छोटे दलों की सक्रियता यूं ही नहीं दिख रही है। इसकी आड़ में ये दल बड़ी पार्टियों से लोकसभा चुनाव को लेकर मोलभाव की जमीन तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं। इनकी कोशिश है कि निकाय चुनाव में बड़े दलों पर इतना दवाब बना लिया जाए कि इस चुनाव में न सिर्फ सियासी जमीन का विस्तार करने का काम आसान हो जाए, बल्कि सियासत में बड़ी भूमिका का सपना भी पूरा हो जाए। इसीलिए इनका सारा ध्यान इस रणनीति पर है कि किसी न किसी तरह निकाय चुनाव में बड़े दलों से समझौता करके कुछ नगर पंचायतों या नगर पालिका परिषदों के कुछ पद हासिल कर लिए जाएं।
प्रदेश में छोटे दलों की कार्यपद्धति पर नजर डालें तो मालूम होगा कि इन दलों के संस्थापकों की राजनीति का मुख्य आधार क्षेत्रीय या जातीय अस्मिता के सहारे अपनी सियासी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना है। उधर बड़े दल भी जाति और क्षेत्र विशेष को संतुष्टि का संदेश देकर अपने सियासी समीकरण मजबूत करने की कोशिश करना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें जातीय और क्षेत्रीय अस्मिता के लिए इन नेताओं से समझौता कर तथा इसके बदले इन्हें कुछ सीटें देकर इनके वोट लेना ज्यादा आसान काम लगता है।
एनडीए में शामिल अपना दल (एस) व निषाद पार्टी अपनी जाति की संख्या को आधार बनाकर निकाय चुनाव में हिस्सेदारी मांग रहे हैं। पार्टी सूत्रों का कहना है कि प्रदेश के 17 नगर निगमों में से कम से कम 4 नगर निगमों और करीब 200 से अधिक नगर पालिका व नगर पंचायतों में कुर्मी जाति का प्रभाव है। वहीं सुभासपा अध्यक्ष ओमप्रकार राजभर भी पूर्वांचल के एक दर्जन से अधिक जिलों में राजभरों की संख्या को प्रभावशाली बनाकर अप्रत्यक्ष तौर पर भाजपा को लुभाने की कोशिश में जुटे हैं। हालांकि वह अभी तक अकेले चुनाव लड़ने की ही बात कह रहे हैं। जबकि अंदरखाने के सूत्र बताते हैं कि वह भाजपा को लगातार यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि पूर्वांचल के उन जिलों में भी राजभर जाति अपने बल पर चुनाव जिताने की स्थिति में हैं, जिन जिलों में विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन खराब रहा है।
वहीं निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद भी आबादी के आधार पर अपनी दावेदारी जता रहे हैं। उनका कहना है कि कई शहरों में करीब 20 प्रतिशत से अधिक मछुआ समुदाय की आबादी है। वहीं प्रदेश में करीब 50 नगर पालिका परिषद मछुआ बाहुल्य है। इसलिए निषाद पार्टी की सहभागिता तो होनी ही चाहिए। उधर विधानसभा चुनाव में सपा के साथ रह कर अलग हो चुके महान दल के केशव देव मौर्य भी एक बार फिर से सपा के साथ मिलकर निकाय चुनाव के बहाने अपनी सियासी जमीन तलाशने की कोशिश में जुटे हैं।
इसलिए भी दबाव बनाने में जुटे हैं छोटे दल
दरअसल इस बार के चुनाव में छोटे दल इसलिए भी दबाव बनाने में जुटे हैं कि इनपर भी पार्टी की सियासी जमीन को विस्तार देने और कार्यकर्ताओं के समायोजन को लेकर दोतरफा दबाव है। खासतौर पर सत्ता में शामिल अपना दल (एस), निषाद पार्टी के अलावा सुभासपा अधिक दबाव में है। इसकी वजह यह है कि अब तक हुए चुनावों में इन दलों के मुखिया ने खुद के अलावा अपने परिजनों को ही पहला मौका दिया है। इसलिए इनपर मनोवैज्ञानिक दवाब है कि कार्यकर्ताओं को समायोजित करने के लिए अब निकाय चुनाव में अधिक से अधिक हिस्सेदारी मिले।