धुआं उड़ाता बॉलीवुड

डॉ कुसुम पाण्डेय

बॉलीवुड में ड्रग्स और नशे का खिलवाड़ लंबे समय से चल रहा है। 80 के दशक में रॉकी फिल्म बनी जिसमें संजय दत्त को नशे का आदी
गया था जो कि वास्तव में सच था। इसी तरह “नाम”फिल्म में  अंडरवर्ल्ड का नंगा रूप देखने को मिला था।

हालांकि ऐसा नहीं है कि बॉलीवुड में खाली नशे का ही खेल होता है। हमारे बॉलीवुड में बहुत सारी अच्छी फिल्में  जिसमें से 1957 में मदर इंडिया को तो आॅसकर  तक के लिए नामित किया गया था। जिसने  समाज की सच्चाई का रूप दिखाया था कि अगर हमारा बच्चा भी गलत कर रहा है तो उस गलत को रोकने के लिए हम अपने बच्चे की भी जान ले सकते हैं, मतलब समाज में हम वह आदर्श प्रस्तुत कर रहे थे। लेकिन अब अमोल पालेकर जैसे कलाकारों की सीधी सरल फिल्मे नहीं बनती हैं।
अब तो  दिखावे  पर ज्यादा जोर दिया जाता है। फंतासी दिखाने में और गलत तरीके से रातों रात मालामाल बनना, तथाकथित कामयाबी पाना, यह सब सोची समझी साजिश होती है।

पहली फिल्म का  सुपरहिट होना कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि लीक से हटकर अगर कोई फिल्म बनती है तो दर्शक उसे बहुत पसंद करते हैं। राजश्री प्रोडक्शन और ऋषिकेश दा की फिल्में इसका बहुत बड़ा उदाहरण हैं जो कि बहुत ही पारिवारिक , सामाजिक और घरेलू फिल्में बनाते थे जिसको दर्शक बहुत पसंद करते थे। मायापुरी नामक एक फिल्मी मैगजीन छपती थी लेकिन आज वह मैग्जीन कहां गयी यह तो पता नहीं, लेकिन माया नगरी अब महाठगिनी  बनती जा रही है।

70 के दशक में अमिताभ बच्चन जी की फिल्में एंग्री यंग मैन की छवि वाली बनी। जिसमें हीरो को हमेशा मंदिर जाकर के भगवान से झगड़ा करते ही दिखाया गया और उसी तरह की फिल्में बनती रहीं।

हालांकि उस 70 के दशक में रोमांस, कॉमेडी एक्शन सभी तरह की फिल्में बनी। और उसे बॉलीवुड का क्लासिकल दौर भी माना जाता है। 80 के दशक में रॉकी, लव स्टोरी, एक दूजे के लिए  सभी फिल्में हिट रहीं।

हालांकि उसी समय इंसाफ का तराजू जैसी सामाजिक मुद्दे की फिल्में भी बनी जो कि बलात्कार के ऊपर आधारित फिल्म थी।

लेकिन जैसे-जैसे मीडिया का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। फिल्मी जगत का रूप नित्य प्रति गंदा होता जा रहा है। अपने आप को “दी बेस्ट” घोषित  करवाने के चक्कर में लोग लगातार अनैतिकता की तरफ बढ़ते जा रहे हैं।

राजा हिंदुस्तानी जैसी फ़िल्म में ऐसे लोगों को दिखाया  गया जिसकी कल्पना उस वर्ग का प्रत्येक व्यक्ति करने लगा और आज का दौर तो और भी मुश्किलों भरा है।

बॉलीवुड का काला चेहरा, नशे में उड़ता धुआँ ,आज दूसरी ही कहानी कह रहा है।

यह बात सच है कि बॉलीवुड में सभी कलाकार ऐसे नहीं हैं और जहां तक कि पुराने कलाकारों की बात की जाए क्योंकि बॉलीवुड का इतिहास तो बहुत ही पुराना है। तो पुराने कलाकारों में जिसमें से की राज कपूर जो भी फिल्में बनाते थे देवानंद वगैरा की जो फिल्में बनती थी जो सामाजिक मुद्दों को लेकर के फिल्में बनी। देशभक्ति की फिल्में बनी। उस समय   के कलाकारों में शायद  आज की तरह से गला काट प्रतिस्पर्धा नहीं चल रही थी। लेकिन यह नए नए कलाकार जिन्हें युवा अपना आदर्श मानते हैं और उनके जैसा बनना चाहते हैं। तो यह कैसा आदर्श प्रस्तुत किया जा रहा है।
हालांकि इसमें  मीडिया का भी बहुत बड़ा दोष है। किसी कलाकार को हिट या फ्लॉप कराने में मीडिया का भी अहम रोल रहता है। “उड़ता पंजाब” सरीखी फिल्में बनाकर बॉलीवुड क्या दिखाना चाह रहा है??? जबकि उसके बहुत से युवा कलाकार इस नशे की लत से जूझ रहे हैं???
आखिर यह करिश्माई सिनेमा देश के युवाओं  को कितना भ्रमित करेगा। फिल्में समाज का आईना होती है और कलाकारों को जनता पूजती है, तो कलाकारों को कम से कम इस बात का तो ध्यान रखना चाहिए।

पैसा कमाने के चक्कर में संस्कृति, सभ्यता, आत्मसम्मान सब को ताक पर रख दिया जा रहा है।

यह हमारे समाज के लिए वास्तव में बहुत विकट स्थिति है। सही समय आ गया है कि कोरोना  में फिल्म नगरी का भी सैनिटाइजेशन हो जाना चाहिए और नशे के आदी कलाकारों को खुद ही होम आइसोलेशन में चले जाना चाहिए। जिससे गलत लोगों द्वारा गलत फिल्में बना कर समाज को प्रदूषित होने से बचाया जा सके।

सार्वजनिक जीवन जीने वालों की  कुछ जिम्मेदारी समाज के प्रति भी होती है। इसका ध्यान इन फिल्मी कलाकारों को भी रखना चाहिए।
अगर जनता आपको इतना सम्मान दे रही है तो कम से कम आपको उस लायक तो अपने आप को बना कर रखना ही चाहिए।

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