देवोत्थान एकादशी पर श्रद्धालुओं ने गंगा में लगाई आस्था की डुबकी

प्रयागराज। एकादशी देश के विभिन्न क्षेत्रों में विविध रूपों में मनाया जाता है। इसे देवोत्थान एकादशी भी कहते हैं। कार्तिक शुक्ल पक्ष की यह एकादशी पूरे वर्ष में सबसे उत्तम मानी जाती है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान विष्णु निद्रा से जागते है और उनका विवाह तुलसी के साथ होता है। जिसके बाद से शुभ कार्य शुरू हो जाते हैं।

एकादशी पर्व के पर भगवान पुण्य अर्जित करने के लिए वत रखा है। श्रद्धालुओं ने व्रत रख सुबह यमुना नदी एवं गंगा में स्नान करने के बाद मां तुलसी की पूजा अर्चना की। शाम को भी पूजा की जाएगी।महिलाएं व्रत पारण करने से पूर्व गुरुवार की भोर में सूप बजाकर घर के सभी कोने से दरिद्रता को भगाने की प्रथा का पालन करते हुए पुराने सूप को अपने घर से दूर फेंक देंगी। यह प्रथा काफी दिनों से चली आ रही है।

चार महीने पाताल में रहने के बाद आज क्षीर सागर लौटते हैं भगवान विष्णु
वामन पुराण के अनुसार, भगवान विष्णु ने वामन अवतार में राजा बलि से तीन पग भूमि दान में मांगी थी। उन्होंनें विशाल रूप लेकर दो पग में पृथ्वी, आकाश और स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरा पैर बलि ने अपने सिर पर रखने को कहा। पैर रखते ही राजा बलि पाताल में चले गए। भगवान ने खुश होकर बलि को पाताल का राजा बना दिया और वर मांगने को कहा।

देवउठनी एकादशी पर पूजा के स्थान को गन्नों से सजाते हैं। इन गन्नों से बने मंडप के नीचे भगवान विष्णु की मूर्ति रखी जाती है, साथ ही पूरे विधि-विधान से पूजा-अर्चना कर भगवान विष्णु को जगाने की कोशिश की जाती है। इस दौरान पूजा में मूली, शकरकंदी, आंवला, सिंघाड़ा, सीताफल, बेर, अमरूद, फूल, चंदन, मौली धागा और सिंदूर और अन्य मौसमी फल चढ़ाए जाते हैं।

आज से शुरू हो जाएंगे मांगलिक कार्य
इस तरह मांगलिका कार्य शुरू हो जाएंगे। इस दिन कहीं सुबह तो कहीं शाम के समय देवउठान की पूजा की जाती है। गन्नों से मंडप तैयार किया जाता है, और सभी मौसमी फल भगवान को अर्पित कर दीप प्रज्वलित किए जाते हैं। इस दिन सुबह के समय तुलसी जी की भी पूजा की जाएगी। देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु के नाम का कीर्तन भी करना चाहिए। देवउठनी एकादशी के दिन निर्जल व्रत रखना चाहिए।

देवउठनी एकादशी के दिन किसी गरीब और गाय को भोजन अवश्य कराना चाहिए। एकादशी तिथि 24 नवंबर की मध्यरात्रि 02 बजकर 43 मिनट से शुरू हो गई है और 26 नवंबर की सुबह 05 बजकर 11 मिनट पर समाप्त होगी। 26 नवंबर सुबह 10 बजे तक व्रत का पारण कर सकते हैं। इस दिन तुलसी की पूजा करने का भी विधान है। तुलसी की पूजा में तुलसी को सुहागिन महिलाएं सुहाग की चीजें और लाल चुनरी अर्पित करती हैं।

तुलसी के जन्म की कथा
तुलसी (पौधा) पूर्व जन्म में एक लड़की थी, जिसका नाम वृंदा था। राक्षस कुल में जन्मी यह बच्ची बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी। जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में ही दानव राज जलंधर से संपन्न हुआ। राक्षस जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था। वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी, सदा अपने पति की सेवा किया करती थी।

एक बार देवताओ और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा.. स्वामी आप युद्ध पर जा रहे हैं, आप जब तक युद्ध में रहेंगे, मैं पूजा में बैठकर आपकी जीत के लिए अनुष्ठान करुंगी। जब तक आप नहीं लौट आते मैं अपना संकल्प नहीं छोड़ूंगी।

जलंधर तो युद्ध में चला गया और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गई। उसके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को न हरा सके। सारे देवता जब हारने लगे तो विष्णु जी के पास पहुंचे और सभी ने भगवान से प्रार्थना की। भगवान बोले, वृंदा मेरी परम भक्त है, मैं उससे छल नहीं कर सकता। इसपर देवता बोले कि भगवान दूसरा कोई उपाय हो तो बताएं लेकिन हमारी मदद जरूर करें। इस पर भगवान विष्णु ने जलंधर का रूप धरा और वृंदा के महल में पहुंच गए।

वृंदा ने जैसे ही अपने पति को देखा तो तुरंत पूजा से उठ गई और उनके चरणों को छू लिया। इधर, वृंदा का संकल्प टूटा, उधर युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काट कर अलग कर दिया। जलंधर का कटा हुआ सिर जब महल में आ गिरा तो वृंदा ने आश्चर्य से भगवान की ओर देखा जिन्होंने जलंधर का रूप धर रखा था।

इस पर भगवान विष्णु अपने रूप में आ गए पर कुछ बोल न सके। वृंदा ने कुपित होकर भगवान को श्राप दे दिया कि वे पत्थर के हो जाएं। परिणाम स्वरूप भगवान तुरंत पत्थर के हो गए। सभी देवताओं में हाहाकार मच गया। देवताओं की प्रार्थना के बाद वृंदा ने अपना श्राप वापस ले लिया।

इसके बाद वे अपने पति का सिर लेकर सती हो गईं। उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु ने उस पौधे का नाम तुलसी रखा और कहा कि मैं इस पत्थर रूप में भी रहूंगा, जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जाएगा। इतना ही नहीं उन्होंने कहा कि किसी भी शुभ कार्य में बिना तुलसी जी के भोग के पहले कुछ भी स्वीकार नहीं करुंगा। तभी से ही तुलसी जी कि पूजा होने लगी। कार्तिक मास में तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ किया जाता है। साथ ही देव-उठावनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है।

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