भोर की बेला’ पर विचार व्यक्त करते हुए मासूम रज़ा राशदी ने कहा
प्रयागराज। दयाशंकर प्रसाद की कविताओं को पढ़ते-पढ़ते कब पाठक प्रकृति की
गोद में चला जाता है ये पता ही नहीं चलता, ये जब लिखते हैं तो ऐसा लगता
है कि कलम ने कूंची का और कागज ने कैनवस का रूप धारण कर लिया हो और रंगों
के रूप में पूरा इन्द्रधनुष कैनवस पर उतर आया हो। दयाशंकर प्रसाद जी की
कविताओं को पढ़ते पढ़ते विलियम वौड्सवर्थ की याद ताजा हो जाती है। यह बात
मासूम रज़ा राशदी ने शुक्रवार गुफ़्तगू की ओर से आयोजित आॅनलाइन परिचर्चा
में दयाशंकर प्रसाद के काव्य संग्रह ‘भोर की बेला’ पर विचार व्यक्त करते
हुए कहीं।
अर्चना जायसवाल ने कहा कि दयाशंकर प्रसाद की कविताओं में प्रकृति प्रेम
एवं रचनाओं में नवीनता का समावेश है। सुंदर एवं सरल भाषा मे रचित हैं।
भोर की बेला सांझ की बेला, बादल चले गये ,कुछ तुम बदलो कुछ हम बदले, बचपन
के दिन, मेरे गांव मे नदियां बहती थी आदि शीर्षक की कविताएं बेहद पठनीय
और मार्मिक हैं। इनकी कविताएं मन मोहने वाली, सजीवता का एहसास कराती हैं।
जमादार धीरज ने कहा कि दयाशंकर प्रसाद प्राकृतिक या कोई भी दृश्य देखते
हैं तो अपने ढंग से कविता का सृजन कर देते हैं, पर पाठक का विषय कुछ
अधिक की अपेक्षा करता है जहां सामान्यतः उसकी दृष्टि नहीं पहुंचती है
अन्यथा वह कविता क्यों पढ़ेगा। कल्पना शक्ति और काव्य शिल्प के माध्यम से
अभिव्यक्ति मे नवीनता अनवरत अध्ययन और अभ्यास से ही प्राप्त होती हैं।
कवि मंे रचने की लालसा है कई अन्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। सीखने का
कोई ओर छोर नहीं है आशा है भविष्य में और उत्तम रचनाएं पढ़ने को प्राप्त
होंगी। इसरार अहमद ने कहा कि प्राकृतिक रंगों में सराबोर सम्मानित दया
शंकर प्रसाद का काव्य संग्रह ‘भोर की बेला’ प्राचीन कालीन ऋषि-मुनियों
द्वारा प्रदत समृद्ध भारतीय संस्कृति के साक्षात दर्शन कराता हैं जो अब
धीरे धीरे विलुप्त होती जा रही है।
इनके अलावा रचना सक्सेना, डाॅ. नीलिमा मिश्रा, मनमोहन सिंह तन्हा,
शगुफ़्ता रहमान, रमोला रूथ लाल ‘आरजू’, तामेश्वर शुक्ल ‘तारक’, ऋतंधरा
मिश्रा, डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’, डॉ. ममता सरूनाथ, सागर होशियारपुरी, नरेश
महारानी, विजय प्रताप सिंह और प्रभाशंकर शर्मा ने भी विचार व्यक्त किए।
शनिवार को इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की शायरी पर परिचर्चा होगी।