आर.के. सिन्हा
जब सारी दुनिया कोरोना वायरस से थर्र-थर्र कांप रही है, तब हमारे सामने एक अन्य बेहद विषम परिस्थिति अचानक उत्पन्न हो गई है। इसके कारण कोरोना के खिलाफ लड़ी जा रही जंग भी अचानक से कमजोर पड़ती नजर आ रही है। दरअसल देश में लॉकडाउन की घोषणा होने के दूसरे दिन से ही राजधानी दिल्ली समेत देशभर के एनी राज्यों से प्रवासी मजदूर अपने गांवों की तरफ जाने की तरफ पलायन करने लगे हैं। चौबीस घंटों में ऐसा क्या हो गया कि लाखों मजदूर और उनके परिवार एकदम से भयाक्रांत हो उठे । यह अफवाह कैसे फैली कि अब उनका काम हुआ ख़त्म । तुरंत गाँव जाकर ही किसी तरह अपने और अपने परिवार का पेट पालना होगा ।
सबसे ज्यादा विकट स्थिति देश की राजधानी दिल्ली की है। धौला कुंआ और आनंद विहार के रास्ते हजारों प्रवासी श्रमिक अपने गांवों की तरफ जुलूस शक्ल में पैदल ही चले ही जा रहे हैं। यह परिस्थिति एकाएक क्यों उत्पन्न हो गई । फिलहाल इस संबंध में पुख्तातौर पर कुछ भी कहना तो सही नहीं होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विगत 24 मार्च को 21 दिन के राष्ट्रव्यापी बंद की घोषणा की थी जिसके बाद सड़क, रेल और हवाई यातायात सहित सभी तरह का परिवहन बंद हो गया। उनका साफ कहना था कि तीन हफ्ते का लॉकडाउन किए बगैर बात ही नहीं बनेगी। यानी देश में कोरोना के खतरे को फैलने से बचाना कठिन होगा। उनके आहवान के बाद देश भर में सारा कामकाज बंद हो गया। गृह मंत्री अमित शाह ने भी सभी मकान मालिकों से एक माह का किराया मजदूरों से न लेने की अपील की और कारोबारियों को पूरे महीने के वेतन देने को कहा चाहे मजदूर काम पर आयें या अनुपस्थित रहें । लेकिन, सरकारी अधिकारियों से चूक यह हुई कि उन्होंने तत्काल कोई योजना ही नहीं बनाई न ही कोई सार्वजानिक घोषणा की जो मकान मालिक किराये की आमदनी पर ही जी रहे हैं उनका क्या होगा ? जिन छोटे कारोबारियों के सामर्थ में सारे स्थायी और ठेके पर काम करने वाले कर्मचारियों और मजदूरों के वेतन का भार उठाना संभव ही नहीं था, उन्होंने कारोबार रोककर सारे मजदूरों से जगह खाली करने और घर वापस जाने को कहा । किसी ने तो विनम्रता से अपनी मजबूरी जताई तो ज्यादातर मकान मालिकों और फैक्टरी मालिकों ने सख्ती का ही इस्तेमाल किया । यही वक्त था जब उन्हें तत्काल रोकने की जरूरत थी और वित्त मंत्रालय और श्रम मंत्रालय को भी तत्काल इस समस्या पर सोचना चाहिये था कि इन करोड़ों ठेका मजदूरों का क्या होगा जिनमें ज्यादातर गरीब हैं और दिन भर कमाते हैं तो शाम को रोटी बनती है ।
इसका मतलब यह तो नहीं था कि दिहाड़ी मजदूरों का सरकार द्वारा ख्याल नहीं किया जाता। सरकार इनके लिए भी कुछ न कुछ करती जरूर । पर इन दिहाड़ी मजदूरों को लगा कि अब इनके लिए दिल्ली में कुछ बचा ही नहीं। फिर तो इन्होंने विभिन्न राज्यों में खासकर पूर्वांचल प्रदेशों में स्थित अपने गावों की ओर पलायन शुरू कर दिया। परिवहन के अभाव में बड़ी संख्या में ये लोग पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घर वापस जा जाने को तैयार हो गये । दिल्ली सरकार के स्थानीय अधिकारियों को इन्हें जहाँ सड़क पर आने से रोकना था वहीं यह पता है कि इन्होंने अपनी जीपों में लगे लाऊडस्पीकरों पर घोषणा कि की बसें दिल्ली सीमा पर लगी है जिनको अपने गावं जाना है जायें । स्वाभाविक तौर पर केंद्र सरकार को उम्मीद थी कि कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए लॉकडाउन करने के बाद लोग अपने घरों में ही रहेंगे। पर इधर तो स्थिति बिल्कुल उलट हो गई । क्योंकि, हजारों की संख्या में दिहाड़ी मजदूर घरों से बाहर निकल पड़े और स्थानीय अधिकारियों ने इन्हें रोकने के बजाये उन्हें दिल्ली-यू पी सीमा पर जाने को कहकर गुमराह किया । यह निश्चित रूप से एक अत्यंत ही गैर-जिम्मेदाराना कृत्य था जिसके लिये ऐसे सभी अफसरों को चिन्हित कर कठोर दंड देना चाहिए ।
अब क्या करें सरकार
अब सरकार के पास विकल्प ही क्या बचा है? मोटा-मोटी सरकार अब यही कर सकती है कि इन गरीब मजदूरों को वे अभी जहाँ हैं वहीं आसपास के रेलवे स्टेशनों पर खड़ी ट्रेनों में 14 दिन आएसोलेशन में रहने की जगह दिलवा दे, जिधर से भी ये परिवार सहित गुजर रहे हैं। ये सब अभी हाईवे पर हैं। हाईवे से कोई बहुत दूर नहीं होते हैं रेलवे स्टेशन। चूंकि रेलवे की सेवाएं फिलहाल ठप हैं इसलिए इन प्रवासी मजदूरों को स्टेशनों पर ट्रेनों में रखा जा सकता है। सब स्टेशनों पर ट्रेनें खड़ी हैं। वहां पर ही इनके लिए भोजन आदि की व्यवस्था हो सकती है। ट्रेनों में शौचालय भी होता है बिजली पंखा भी, और ये कुछ-कुछ दूरी पर रह भी सकते हैं। चूंकि रेलवे के पास अपना बहुत ही विशाल और उम्दा इंफ्रास्ट्रक्टर है, इसलिए सरकार रेलवे के संसाधनों का फ़िलहाल लाभ उठा सकती है। आज रेलवे मंत्रालय ने इस सम्बन्ध में पहल भी की है ।फिलहाल इसके अतिरिक्त इन्हें बंद स्कूलों और कालेजों में भी आइसोलेट किया जा सकता है। इन्हें किसी भी हालत में गांवों की ओर कूच से तो रोकना हो होगा । क्योंकि, इनमें से यदि एक भी संक्रमित अपने गाँव में चला गया तो पूरे गाँव भर में ही संक्रमण फैला देगा । मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि मैं जानता हूँ कि इन्हीं मजदूरों में कारोबारियों और फैक्ट्री मालिकों के व्यक्तिगत स्टाफ जैसे कुक, ड्राइवर, सफाई कर्मचारी, माली आदि भी हैं । चूंकि, ये छोटे कारोबारी अपनी फैक्ट्री के पीर-बाबर्ची-भिश्ती-खर सभी होते हैं, इसलिये चमड़े और जूते के कारोबारी इटली और कंप्यूटर, फर्नीचर और कपड़े के कारोबारी चीन नियमित रूप से जाते ही रहते हैं ।
अब यदि ये इटली,चीन या कहीं भी विदेश से लौटे होंगें तो उनके व्यक्तिगत स्टाफ में संक्रमण की सम्भावना तो होगी ही ।
किससे डरते हैं मजदूर
एक बात यह भी लग रही है कि इन प्रवासी मजदूरों को किसी स्तर पर पूरी तरह षड्यंत्र पूर्वक उकसाया गया कि वे लॉकडाउन के दौरान दिल्ली या अन्य शहरो से अपने गांवों की ओर निकल लें। यदि वे यहां पर रहे तो भूख से मर जाएंगे। वर्ना एक साथ हजारों की संख्या में मजदूर सड़कों पर तो कभी भी नहीं उतर सकते थे। इसकी गहन जहंच होनी चाहिए । ये गरीब तो रोग से भी नही डरते । अगर डरते तो नरक जैसी झुग्गियों में नही रहते, जहां से शायद आप गुजरना भी न पसन्द करें। वे सिर्फ भूख से डरते हैं । यही भूख उन्हें उनके अपने गांव के सुन्दर परिवेश और परिवार से दूर नरक जैसी दुनिया में रहने को मजबूर कर देती है। यही उनका पेट भर रोटी का सपना टूटा है या तोड़ दिया गया है उनका और वे चल पड़े हैं मौत से बिना डरे उस जगह को जिससे उनकी नाल जुड़ी हुई है।
किस स्तर पर हुई गड़बड़
आप सरकारों की लाख कमियां निकालें या उन्हें बुरा भला कहें पर ये किसी को राम भरोसे तो छोडती नहीं है। हालांकि दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार को जरूर ऐसे प्रयास करने चाहिए थें कि इन्हें अपने घरों स निकलने से रोका जाता । पर हुआ बिलकुल उलटा केजरीवाली सरकार इस मोर्चे पर तो जरूर फेल हुई। स्थितियाँ जैसी उत्पन्न हुईं उससे तो यही कहा जा सकता है कि लॉकडाउन के मद्देनजर अपने गांव लौटने को मजबूर हुए इन मजदूरों के लिए केंद्र और राज्य सरकारें लगातार जरूरी कदम नहीं उठा रही थीं ? बेशक, उनके लिए खाने-पीने का इंतजाम करने की हरसंभव कोशिश की जा रही है। फिर भी राजधानी दिल्ली में मजदूर रुकने को तैयार क्यों नहीं हैं। इन्हें तो अपने गांवों में जाने की ही जिद और जल्दी है। यही वजह है कि ये हजारों की संख्या में सड़कों पर आ गए हैं।
अब चूंकि सारे देश में बंद वाली स्थिति है तो इन्हें बीच रास्ते में खाने-पीने की वस्तुएं कहां मिलेंगी? राशन मिलने में भी दिक्कत है और पहुँचाने में तो और भी भारी दिक्कत है । इन्हें रात को सोने की लिए कौन अपने घर में जगह देगा ? इन्हें बीच रास्ते में कोई मंदिर, गुरुद्वारा या कोई और धार्मिक स्थान भी नहीं मिलेगा जहां पर ये रात गुजार सकें। ये सब के सब भी बंद हैं। इन सबके साथ छोटे-छोटे बच्चे भी हैं। वे कैसे इतना लंबा रास्ता तय कर सकेंगे ?
अब तो ऐसी ख़बरें आ रही हैं कि जब गाँव वाले पैदल चलकर अपने गाँव पहुंचे तो गाँव वालों ने गाँव की सीमा में घुसने ही नहीं दिया । पुलिस के बीच बचाव पर इन्हें दो-तीन हफ्ते आएसोलेशन में रखा गया । तो फिर इन मजदूरों को सरकारी मेहमान बनना ही बेहतर है न कि अपने ही गाँव में ही जाकर बेइज्जत होना ।
बहरहाल, इन प्रवासी मजदूरों ने देश को अपनी दर्दनाक हालत की जानकारी तो सबको दे ही दी है। शहरी मिडिल क्लास और धनी हिन्दुस्तानियों को क्या पता कि इन किस्मत के मारों को जीवन में रोज ही कितने कष्ट झेलने पड़ते है। इन्हें क्या पता कि दिहाड़ी मजदूर अब भी रोज राशन खरीद कर खाता है। एक बेलदारी करने वाला अधिकतम छह सौ रुपये रोज कमाता है। दिहाड़ी मजदूर तो तीन सौ से चार सौ । हालांकि वह राशि रोज मिलने की कोई गारंटी भी नही है। ज्यादातर हफ्ते में एक बार । चार लोगों के परिवार के लिए दो किलो आटा, पाव भर रिफाइंड तेल साथ में सब्जी-भाजी, दाल, चावल, चीनी-चाय की पत्ती, मसाला आदि को खरीदने में उसकी औसत दिहाड़ी समाप्त हो जाती है । रसोई को रोज चलाने और पेट भर खाने के लिए पूरे परिवार को कमाना पड़ता है। और उसमें पान,बीड़ी, सिगरेट का खर्च अलग। बीमारी में तो और भी मुश्किल। गांव में रहने वालों से रिश्तेदारी नातेदारी भी निभानी पड़ती है । आखिर बच्चों के शादी ब्याह तो वहीं उसी गाँव से करने होते हैं उन्हें। ऐसे में इक्कीस दिनों के लॉक डाउन ने इन्हें हिला कर रख दिया। इन्हें लगा कि अपने गांव जाने के अतिरिक्त रास्ता ही क्या है?
यह ठीक है कि स्थिति अभी तो बहुत ही खराब है, पर इसे और खराब होने से बचाने के लिए सरकार और समाज को मिलकर आगे तो आना ही होगा। अफसरों को भी अफसरी छोड़कर सेवा भाव से कम करना होगा । इन प्रवासी मजदूरों को यह नहीं लगना चाहिए कि ये मात्र वोट बैंक हैं।
(लेखक वरिष्ठ संपादक एवं स्तंभकार हैं )