उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में प्रियंका गांधी ने 40 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं को प्रत्याशी बनाने की शुरुआत की तो दिल्ली महिला कांग्रेस ने भी इसका जश्न मनाया। दिल्ली कार्यालय में बाकायदा एक ढोल वाला बुलाया गया। फिर ढोल की थाप पर प्रदेश महिला अध्यक्ष अमृता धवन सहित कुछ अन्य पदाधिकारियों ने नाचते हुए प्रियंका के स्लोगन ”लड़की हूं, लड़ सकती हूं” भी गाया। दरअसल, इस खुशी की वजह महिलाओं को अहमियत मिलना था। उत्तर प्रदेश की इस पहल से दिल्ली में भी महिला कांग्रेस में उम्मीद जगी है कि यहां भी आने वाले चुनावों में महिला प्रत्याशियों को तरजीह दी जाएगी। उम्मीद जायज भी है, जिस वर्ग को आधी आबादी का दर्जा दिया जाता है, उसे सियासत में भी तव्वजो मिलनी ही चाहिए। अमृता धवन ने कहा भी कि, प्रियंका गांधी की यह पहल उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि देश की सियासत में भी मील का पत्थर साबित होगी।नई नई पहल करने में माहिर भारतीय युवा कांग्रेस (आइवाइसी) का दिल्ली की सियासत में भी आक्रामक रूख देखने को मिल रहा है। आइवाइसी अध्यक्ष श्रीनिवास बीवी ने इसकी पहल उपराज्यपाल अनिल बैजल के नाम पत्र लिखकर की है। पत्र के जरिये उन्होंने कोरोना कुप्रबंधन के बहाने केजरीवाल सरकार पर निशाना साधा। श्रीनिवास ने आरोप लगाया कि दिल्ली सरकार ने कोरोना जांच की संख्या को कम कर दिया है। ऐसा करके कोविड -19 से संक्रमित लोगों की सही संख्या को दबाया जा रहा है। पहले जहां एक- एक लाख लोगों की कोरोना जांच हो रही थी वहीं अब यह संख्या 40 हजार के आसपास रह गई है। कोविड -19 मामलों की सही संख्या को छिपाकर सरकार तीसरी लहर को संभालने में अपनी विफलता को ढांपने की कोशिश कर रही है। वैसे इस पत्र के बहाने श्रीनिवास ने आलाकमान को स्वयं के दिल्ली की सियासत में सकिय होने का संदेश भी पहुंचा दिया है।पिछले कुछ दिनों से कांग्रेस में पार्टी छोड़ने वालों की लाइन लगी हुई है। नगर निगम चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करने की मंशा से कोई हाथ का साथ छोड़ झाड़ू थाम रहा है तो कमल। लेकिन जीत तो दूर की बात, सीटों की रोटेशन प्रक्रिया से अब इन दलबदलू नेताओं के टिकट भी अधर में लटकते नजर आ रहे हैं। कहीं जनरल सीट आरक्षित होने जा रही है तो कहीं कोई सीट महिला आरक्षित होने जा रही है। कहीं- कहीं आरक्षित वर्ग की सीट पर भी महिला के ही लड़ने की बाध्यता बन रही है। ऐसे में दलबदलू नेताओं के होश उड़े हुए हैं। उनकी हालत कुछ कुछ वैसी ही होती जा रही है कि घर के रहे, न घाट के। पुरानी पार्टी में बने रहते तो उनके मान सम्मान में उनका टिकट किसी परिजन को भी मिल सकता था। लेकिन नई पार्टी में भला इसकी गारंटी कौन लेगा!
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