प्रयागराज ! राष्ट्रीय सुरक्षा जागरण चैप्टर यूनिट के तत्वाधान में ऑनलाइन (गूगल मीट) ई-संगोष्ठी का आयोजन किया गया । ई – संगोष्ठी का विषय हाईफा विजय दिवस था। इस अवसर पर मुख्य वक्ता श्री गोलोक बिहारी राय राष्ट्रीय संगठन मंत्री फैंस हाईफा विजय दिवस के महत्व को बताते हुए कहा कि यह दिवस सैनिकों के लिए सम्मान और हित की रक्षा के लिये मनाया जाता है जिससे देश में शांति एवं सुरक्षा का वातावरण बना रहे और लोग जागरूक बने। राय जी ने कहा कि वो साल 1918 था, पहला विश्व युद्ध उसी साल नवंबर में खत्म हुआ था, लेकिन उससे पहले बारूद की गंध दुनिया के आखिरी इंसान तक पहुंच चुकी थी। तब तक यहूदियों का देश इस्राइल नहीं बना था। इस्राइल भारत के आजाद होने के कुछ ही महीनों बाद 1948 में बना था। तो 1918 के सितंबर महीने में ब्रिटिश झंडा थामे लड़ रहे सैनिक समंदर किनारे बसे शहर हाइफा में बहाई समुदाय के आध्यात्यमिक गुरु अब्दुल बहा को रिहा कराने की योजना बना रहे थे। झंडा ब्रिटेन का था, लेकिन वो सैनिक भारतीय थे। भारत की तीन रियासतों- मैसूर, जोधपुर और हैदराबाद के सैनिक, जिन्हें अंग्रेजों की तरफ से जर्मन और तुर्की सेना के खिलाफ लड़ने के लिए भेजा गया था। हाइफा पर जर्मन और तुर्की सेना का कब्जा था। अपने रेल नेटवर्क और बंदरगाह की वजह से हाइफा रणनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण जगह थी, जो युद्ध के लिए सामान भेजने के काम भी आती थी। भारतीय सैनिकों को हाइफा, नाजेरथ और दमश्कस को जर्मन-तुर्की सेना के कब्जे से आजाद कराना था, जो आज इस्राइल और सीरिया में हैं 23 सितंबर 1918 हाइफा के अंदर मशीन गन और उस जमाने के सबसे आधुनिक हथियारों के साथ जर्मन और तुर्की सैनिक तैयार खड़े थे। उनके सामने थे जोधपुर और मैसूर के सैनिक, जिनके पास कोई ऑटोमेटिक हथियार नहीं थे। घोड़ों पर सवार वो सैनिक हाथ में भाले और तलवारें लिए खड़े थे। आज सोचें, तो उस दिन लड़ाई का कोई मतलब ही नहीं था। घोड़े कितने भी तेज होते, पर गोलियों से तेज तो नहीं। ऐसी किसी भी लड़ाई के अंत में घुड़सवार सेना को छलनी कर दिया जाना था, पर उस दिन नहीं। उस दिन इतिहास लिखा जाना था। उस दिन दुनिया को एक घुड़सवार सेना के वो पराक्रम देखना था, जो इतिहास में कभी दोहराया नहीं जा सका। जर्मन और तुर्की सैनिकों के कुछ समझने से पहले ही 15वीं (इम्पीरियल सर्विस) घुड़सवार ब्रिगेड ने दोपहर 2 बजे हाइफा पर धावा बोल दिया। जोधपुर के सैनिक माउंट कार्मेल की ढलानों से हमला कर रहे थे। वहीं मैसूर के सैनिकों ने पर्वत के उत्तरी तरफ से हमला किया। सेना के एक कमांडर कर्नल ठाकुर दलपत सिंह लड़ाई की शुरुआत में ही मारे गए, जिसके बाद उनके डिप्टी बहादुर अमन सिंह जोधा आगे आए। मैसूर रेजिमेंट ने दो मशीन-गनों पर कब्जा करके अपनी पोजीशन सुरक्षित कर ली और हाइफा में घुसने का रास्ता साफ कर दिया। वक्ता प्रो. प्रवीन मिश्रा ने सैनिकों के उत्थान व विकास की बात की और मुख्य अतिथि पूर्व लैफिटीनेंट जनरल आर एन सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष फैंस ने अपने अनभव को बताया और कहा कि सैनिक देश सेवा के लिए समर्पित होते हैं और वीरगति को प्राप्त होते हैं। सिंह जी ने कहा कि एक तरफ घोड़े और दूसरी तरफ गोलियां। यही वो दृश्य था, जिसकी कल्पना करके ब्रिटिश जनरल एडमंड एलेनबी भारतीय सैनिकों को युद्ध सी पीछे हटाना चाहते थे, लेकिन सैनिक ठहरे, सैनिक पहलवानों सी फितरत। हार पता होने के बावजूद मैदान में आकर लौट जाने का तो सवाल ही नहीं उठता। दिनभर के युद्ध के बाद भारतीय सैनिकों ने हाइफा को 400 साल पुराने ऑटोमन साम्राज्य से आजादी दिला दी। ऑफीशियल हिस्ट्री ऑफ दि ग्रेट वॉर में लिखा गया, हाइफा को कब्जे में लेकर भारतीय सैनिकों ने 1350 जर्मन और तुर्की सैनिकों को बंदी बनाया था, जिनमें से दो जर्मन अफसर और 35 तुर्की अफसर थे। वहां 17 आर्टिलरी गन और 11 मशीन गन कैप्चर की गईं। इस युद्ध में आठ भारतीय सैनिक मारे गए थे और 34 घायल हुए थे। वहीं 60 घोड़े मारे गए थे और 83 घायल हुए थे। हाइफा में भारतीयों के लिए कब्रिस्तान बनाया गया, जो 1920 तक इस्तेमाल किया जाता रहा। कार्यक्रम की अध्यक्षता आर एस वर्मा पूर्व कमिश्नर जी ने कहा कि सैनिकों की सेवा हम सभी देश वासियों के लिए प्रेरणा स्रोत है। वर्मा जी ने कहा कि, वहीं इस युद्ध में मेजर दलपत सिंह के समेत 6 घुड़सवार शहीद हुए, जबकि टुकड़ी के 60 घोड़े भी मारे गए। जोधपुर लांसर सवार तगतसिंह, सवार शहजादसिंह, मेजर शेरसिंह आईओएम, दफादार धोकलसिंह, सवार गोपालसिंह और सवार सुल्तानसिंह भी इस युद्ध में शहीद हुए थे। मेजर दलपत सिंह को मिलिट्री क्रॉस जबकि कैप्टन अमान सिंह जोधा को सरदार बहादुर की उपाधि देते हुए आईओएम (इंडियन आर्डर ऑफ मेरिट) तथा ओ।बी।ई (ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंपायर) से सम्मानित किया गया था। हम लोगों को इनसे सीखना चाहिए कि त्याग और देश प्रेम क्या होता है। इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि डॉ बी के द्विवेदी, प्रो0 अवधेश अग्निहोत्री, वेटरन बाल कृष्ण पांडे राष्ट्रीय सचिव वेटरन, डॉ. नवीन कुमार मिश्र आदि गणमान्य अतिथियों ने अपने विचार रखें इस कार्यक्रम में श्याम सुंदर पटेल, प्रतिमा मिश्रा, डॉ प्रमोद शुक्ल, नवल तिवारी, ज्योति मिश्रा डॉ बालेन्द्र शुक्ल, डॉ अभिजात ओझा आदि उपस्थित थे। कार्यक्रम समन्वयक डॉ. संजय भारती, संयोजक डॉ प्रत्यूष पांडे तथा तकनीकी संयोजक डॉ राधेश्याम ने कार्यक्रम को सफल बनाने में सहयोग किया।
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