अयोध्या का वर्तमान आधुनिक स्वरूप तो पूरी दुनिया देख ही रही है लेकिन लोगों के मन में अक्सर यह सवाल आता होगा कि पौराणिक काल में अयोध्या नगरी कैसी दिखती थी? इस संदर्भ में पौराणिक ग्रंथों और हिंदू धर्म से संबंधित कथाओं में उल्लेख मिलता है कि महाराजा दशरथ जी के समय की अयोध्या महानगरी बारह योजन लम्बी थी। उस दौरान अयोध्या में सुन्दर लम्बी-चौड़ी सड़कें बनी हुई थीं। इस प्रकार का उल्लेख मिलता है कि नगरी की प्रधान सड़कें तो बहुत ही लम्बी-चौड़ी थीं। उन पर रोज जल का छिड़काव होता था, सुगन्धित फूल बिखेरे जाते थे। दोनों ओर सुन्दर वृक्ष लगे हुए थे। नगरी के अन्दर अनेक बाजार थे, सब प्रकार के यन्त्र (मशीनें) और युद्ध के सामान तैयार मिलते थे। बड़े-बड़े कारीगर वहाँ रहते थे। अटारियों पर ध्वजाएँ फहराया करती थीं। नगर की चहारदीवारी पर सैंकड़ों शतघ्नी (तोपें) लगी हुई थीं। बड़े मजबूत किंवाड़ लगे हुए थे। नगर के चारों ओर शालवृक्ष की दूसरी चहारदीवारी थी। राजा के किले के चारों ओर गहरी खाई थी। अनेक सामन्त, राजा और शूरवीर वहाँ रहा करते थे। अनेक व्यापारी भी रहते थे। नगरी इन्द्र की पुरी के समान बड़े सुन्दर ढंग से बसी हुई थी। उसके आठ कोने थे। वहाँ सब प्रकार के रत्न थे और सात-मंजिले बड़े-बड़े मकान थे। राजा के महलों में रत्न जड़े हुए थे। बड़ी सघन बस्ती थी। नगरी समतल भूमि पर बसी हुई थी। खूब धान होता था तथा अनेक प्रकार के और पदार्थ होते थे। हजारों महारथी नगरी में रहते थे। वेदवेदांग के ज्ञाता, अग्निहोत्री और गुणी पुरुषों से नगरी भरी हुई थी। महर्षियों के समान अनेक महात्मा भी वहाँ रहते थे।
कथा कहानियों में उल्लेख मिलता है कि उस समय उस रम्य नगरी अयोध्या में निरन्तर आनन्द में रहने वाले, अनेक शास्त्रों का श्रवण करने वाले, धर्मात्मा, सत्यवादी, लोभरहित और अपने ही धन से सन्तुष्ट रहने वाले मनुष्य रहते थे। ऐसा एक भी गृहस्थ नहीं था, जिसका धन आवश्यकता से कम हो, जिसके पास इहलोक और परलोक के सुखों के साधन न हों। सभी गृहस्थों के घर गौ, घोड़े और धन-धान्य से पूर्ण थे। कामी, कृपण, क्रूर, मूर्ख और नास्तिक तो वहां थे ही नहीं। वहाँ के सभी स्त्री-पुरुष ऋषियों के समान सदाचारी, संयमी, प्रसन्नचित्त, विनम्र और पवित्र थे। न कोई क्षुद्र विचारक था, न चरित्रवान, न चोर और न संकर। वहाँ के संयमी ब्राह्मण निरंतर अपने दैनिक कार्यों में लगे रहते थे। उन्होंने दान दिया, पढ़ाई की, परन्तु वर्जित दान किसी ने नहीं लिया। अयोध्या में कोई भी नास्तिक, झूठा, ईर्ष्यालु, कमजोर और मूर्ख व्यक्ति नहीं था। सभी बहुत विद्वान थे। ऐसा कोई नहीं था जो वेदों के छहों अंगों को न जानता हो, व्रत-उपवास न करता हो, दरिद्र, पागल या दुःखी हो।
कुछ पौराणिक ग्रंथों में लिखा गया है कि अयोध्या के सभी स्त्री-पुरुष सुन्दर, धर्मात्मा और राजा के भक्त थे। चारों वर्णों के पुरुष और स्त्रियाँ देवताओं और अतिथियों की पूजा करते थे, पीड़ितों को उनकी आवश्यकता के अनुसार दान देते थे, कृतज्ञ और बहादुर थे। उन्होंने धर्म और सत्य का पालन किया, लंबा जीवन जीया और उनकी पत्नियां, बेटे और पोते-पोतियां थीं। नगर पूर्णतः राजा द्वारा संरक्षित था। अयोध्या उन योद्धाओं से भरी हुई थी जो विद्या और बुद्धि में कुशल थे, अग्नि के समान तेजस्वी थे और जो शत्रु के अपमान को सहन नहीं कर सकते थे, जैसे गुफाएँ सिंहों से भरी होती हैं। वह नगर अनेक प्रकार के घोड़ों और बड़े-बड़े मतवाले हाथियों से भरा हुआ था। इसका नाम ‘अयोध्या’ इसलिए रखा गया क्योंकि वहां कोई भी शत्रु युद्ध के लिए नहीं आ सकता था।