डॉ कुसुम पाण्डेय
पहली बार 1953 में हिंदी दिवस मनाया गया । 14 सितंबर 1949 में सबसे पहले हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला था । लेकिन क्यों मनाया जाता है? क्योंकि 1947 में आजादी के बाद भाषा को लेकर के सबसे बड़ा सवाल था। काफी सोच-विचार के बाद हिंदी और अंग्रेजी को नए राष्ट्र की भाषा चुना गया
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि इसके महत्व को देखते हुए प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाएगा और तब से आज तक 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र जी को हिंदी का जनक माना जाता है| हिंदी को सम्मान दिलाने के लिए निरंतर संघर्षरत रहे, उन्होंने लिखा “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के,मिटत न हिय को सूल।।
उन्नति पूरी है तबहि, जब घर उन्नति होय । निज शरीर उन्नति किए, रहत मूढ़ सब कोय ।।
आधुनिक हिंदी के जन्मदाता भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने निज भाषा और गौरव की पताका फहराने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी ।भारतेंदु जी का रचना संसार जितना विराट है उतना ही क्रांतिकारी और बहुआयामी भी उन्होंने अपने जीवन में वह सब कुछ कर डाला जिसे करने की सामर्थ्य व्यक्ति क्या संस्थानों में भी आज नहीं दिखती…..
हिंदी के महत्व को बताते हुए उन्होंने कहा कि और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात । निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।।
भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेंदु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया ।
हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया |अंग्रेजी भाषा का बहुत विरोध हुआ।
1918 में महात्मा गांधी ने हिंदी साहित्य सम्मेलन में हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने को कहा था । गांधी जी ने हिंदी को जनमानस की भाषा भी कहा है।
लेकिन आजादी के इतने सालों बाद भी हिंदी अपने सम्मान की लड़ाई लड़ रही है । हिंदी साहित्य ने बहुत ही मशहूर लेखकों को कवियों को जन्म दिया, जैसे कि राष्ट्र कवि और जन कवि रामधारी सिंह दिनकर जिनकी रचना “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी जोकि अपने जोशीला गीतों के लिए जाने जाते रहे । गोस्वामी तुलसीदास जी….कितने बड़े बड़े साहित्यकार, रचनाकार अनगिनत लोग रहे हैं जो हिंदी में लगातार रचनाएं करते रहे और इसका मान बढ़ाते रहे हैं।
वैसे तो हमारा देश विविध भाषाओं का देश है लेकिन फिर भी एक तो राजभाषा और राष्ट्रभाषा होनी चाहिए| अब हम यहां पर यह देखते हैं कि जनसंख्या के हिसाब से सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी है| हमारे देश में सिर्फ उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां पर भी असंख्य भाषाएं बोली जाती है |और हर १०,२० किलोमीटर की दूरी पर भी भाषाओं का स्तर बदल जाता है ।अवधी उत्तर प्रदेश की एक अहम भाषा है और गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा अवधी भाषा में रचित “रामचरितमानस” भारतीय संस्कृति में महान स्थान रखता है| अपनी संस्कृति का मान बढ़ाना और अपनी भाषा का सम्मान करना ही हमारा मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।
सही मायने में आजादी के बाद भी हम लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति को ही लेकर चलते रहे और सही कहा जाए तो शिक्षितों ने हीं बेरोजगारी पैदा की| गांव में कभी रोजगार की कमी नहीं थी, जो जिस वर्ग का था वह अपना काम करता था, लेकिन शिक्षित लोगों ने गांव से रोजगार छीन लिया| प्रदूषण भी सबसे ज्यादा शिक्षित लोगों नहीं बढ़ाया और अपने स्वयं के जीवन को कष्ट का साधन बना लिया । मिलावट खोरी, भ्रष्टाचार यह सारे काम शिक्षितों के दिमाग की उपज रही है।
सही मायने में तो हमें शिक्षित होने के बजाय विद्या प्राप्त करने का उद्देश्य रखना चाहिए था। कहते हैं कि जब एक बच्चा पैदा होता है तो साथ में माता और मातृभाषा भी पैदा होती है, क्योंकि जब बच्चा बोलना शुरू करता है तो सबसे पहले वह अपनी मातृभाषा में ही बोलता है। वह मां कहता है तो मातृभाषा का जन्म होता है। जैसे जब हम ज्ञान की यात्रा करने निकलते हैं तो हमारे अंदर जिज्ञासा पैदा होती है तो थोड़ा हमारा भी जन्म होता है और उसी अनुभव शाला से ही संस्कार शाला का विकास होता है।
हमारे समाज में सूट बूट पहनने वालों को ही सुशिक्षित मान लिया जाता है जबकि सच यह है कि इंसान कपड़े से नहीं वरन चरित्र से बलवान बनते हैं।
शिक्षा हमें कार दे सकती है लेकिन ज्ञान हमको संस्कार देता है। सभ्यता, संस्कृति को जादुई बनाया जा रहा है। बाजारीकरण ने भाषा और संबंधों की बलि चढ़ा दी है ।जबकि वास्तव में इसका संबंध आंतरिक सुख से नहीं है ।आंतरिक सुख तो वास्तविक चीजों से ही मिलता है। कहा भी गया है “पराधीन सपनेहु सुख नाहीं” फिर चाहे वह भाषा व संस्कृति हो यह सभ्यता हो।।
अंग्रेजी को शिक्षित होने का पैमाना नहीं बनाना चाहिए। भाषा को ही उन्नति का मूल मानना चाहिए ।सच बात यह है कि पूरे विश्व में हमारे जैसा कोई देश नहीं है। हमारी सभ्यता संस्कृति का कोई तोड़ नहीं है।
रामधारी सिंह दिनकर की यह कविता “फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं, धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है। दो राह, समय के रथ का घघॆर नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है, दो राह, समय के रथ का घघॆर नाद सुनो सिंहासन खाली करो।।
खिचड़ी भाषा अर्थात अंग्रेजी हिंदी मिश्रित भाषा का प्रयोग बच्चों को कहीं का नहीं छोड़ेगा इसीलिए जरूरी है कि हम बच्चों की भाषा को विकॄत होने से बचाने की सोचें और अपनी मानसिकता का विश्लेषण कर यह जाने कि बच्चा एक बार में एक भाषा सीखेगा तो वह भ्रम से बचा रहेगा ।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में पांचवी कक्षा तक के बच्चों को मातृभाषा में पढ़ाने पर जोर दिया गया है ताकि उनकी बुनियाद मजबूत हो सके । इसके बहुत से फायदे हैं, पहली बात यह कि अपनी भाषा में बच्चों की सीखने की प्रक्रिया तेज होती है| उनकी स्मरण शक्ति बढ़ती है, उनमें अपनी बातों व विचारों को सबके सामने रखने का आत्मविश्वास आता है।
इसलिए अपनी भाषा पर गर्व करें और अपने आत्म गौरव का मान बढ़ाते हुए अपनी मातृभाषा हिंदी का मान बढ़ाएं।
जापान, जर्मनी, रूस आदि देशों की प्रगति इस मिथ्या धारणा को ध्वस्त करती है कि विकास की भाषा तो अंग्रेजी है। अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना बुरा नहीं है| लेकिन उसके लिए अपनी मातृभाषा का अपमान करना यह सरासर गलत है
शिक्षा के संदर्भ में महात्मा गांधी जी का यह विचार अत्यंत महत्वपूर्ण है कि मातृभाषा से अलग छात्रों पर अंग्रेजी भाषा लादना वास्तव में विद्यार्थी समाज के प्रति एक कपट पूर्ण वृत्ति है। विदेशी भाषा उनकी स्वयं की मौलिकता को धीरे-धीरे समाप्त करता जाता है| निश्चित रूप से इसके पीछे उनके समूचे जीवन का अनुभव और उनकी गहरी सोच थी| मातृभाषा में जो कौशल पनपता है वह कोई अन्य भाषा कभी नहीं कर सकती है।
आजादी के 74 साल बाद भी हम अपने भाषा की लड़ाई लड़ रहे हैं और सही मायने में उसको वह सम्मान और वह स्थान नहीं दे पा रहे हैं जो कि उसको कब का मिल जाना चाहिए था ।आज भी बहुत सारी जगहों पर अंग्रेजी भाषा की ही वरीयता है। यहां तक कि न्यायालय के कार्यों में भी अंग्रेजी भाषा को ही महत्व दिया जाता है। जो कि कहीं से भी उचित नहीं जान पड़ता है। हमारा देश जोकि वसुधैव कुटुंबकम की परंपरा पर चला और सदियों की दासता और गुलामी को झेला । बहुत सारी सभ्यताओं ने संस्कृतियों ने भाषाओं में इसके ऊपर अपना प्रभाव डाला लेकिन क्या यह जरूरी है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी हम उन्हीं चीजों को ढोते रहें???क्यों नहीं हम इतने सालों में अपने देश के लिए एक अपनी राष्ट्रभाषा बनाने के लिए संकल्पित हो पा रहे हैं । आज मुझे रामधारी सिंह दिनकर जी की जिनको राष्ट्रकवि और जन कवि भी कहा गया है…उनकी एक कविता ध्यान आती है “समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध ।जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध ।।तो वास्तव में अभी हिंदी का समर जारी है और इस समर को जिताने के लिए हम सब का आगे आना ही सबसे बड़ी समझदारी है| क्योंकि अगर आज हम इससे पीछे हट गए तो आने वाली कई पीढ़ियों को हम पीछे ही करते जाएंगे और सही मायने में अपने देश की आजादी का अपने देश की संस्कृति ,सभ्यता का हम सम्मान नहीं कर पाएंगे| तो आइए मिलकर एक बार फिर से हिंदी का मान बढ़ाएं, हिंदी का गौरव बढ़ाएं और हिंदी के लिए अपना तन मन और धन लगाएं ।
दुष्यन्त जी की लिखी ये कविता… कौन कहता है आसमां में सुराख़ नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों….