डॉ कुसुम पांडे
कहा जाता है कि “भली मंशा से ही मनोरथ पूर्ण होते हैं” हमारे प्रधान सेवक का यह कहना कि बेटियों के विवाह के लिए न्यूनतम आयु सीमा दोबारा से तय की जानी चाहिए यह एक अत्यंत सराहनीय कदम है।
आजकल नवरात्रि का पावन पर्व चल रहा है। जहां कन्याओं की पूजा की जाती है, उन्हें देवी स्वरूप माना जाता है।
हमारी भारतीय संस्कृति तो अनादि काल से ही कन्याओं को सदैव स्वतंत्रता देने में विश्वास रखती रही है।
हमारी देवियां सती, पार्वती, जानकी जिनकी हम पूजा करते हैं, अपना आदर्श मानते हैं उन सभी ने विवाह के लिए वर्णन किया था । क्योंकि वे सभी दैवी शक्तियों से पूर्ण पूर्ण थी तो बाल्यावस्था से ही उन्होंने विलक्षण कार्य किए जिससे उनके माता-पिता ने उनकी योग्यता अनुसार ही वर चुनने का अवसर दिया।
लेकिन समय एक सा नहीं रहता है। देश काल और परिस्थितियों से हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति में बहुत से बदलाव आए। बहुत सी मजबूरियां ऐसी हो गई कि बाल विवाह ,पर्दा प्रथा, कन्याओं की शिक्षा ना के बराबर होना का समय भी चला। वह सारा इतिहास हम सभी जानते हैं उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है।
परंतु आजादी के इतने सालों बाद भी यह सब कहने और करने की जरूरत पड़ रही है तो इसका सीधा सा अर्थ है कि कन्याओं को लेकर स्थिति अभी संतोषजनक नहीं है।
केंद्र सरकार का मानना है कि कम आयु में विवाह बेटियों के आत्मसम्मान पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से आघात पहुंचाता है।
इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि किशोर आयु में ब्याही गई लड़कियां दुर्व्यवहार और घरेलू हिंसा के शिकार अपेक्षाकृत अधिक होती हैं। कम आयु में विवाह बेटियों की शिक्षा और आत्मनिर्भरता दोनों में ही अवरोध उत्पन्न करता है।
स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी कम उम्र में मां बनना बहुत बड़े जोखिम का कार्य होता है। इसमें लड़कियों को कई गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। यदि कम उम्र में विवाह पर रोक लगा दी जाती है तो हमारा देश कई तरह की सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से बच सकता है। और देश की आर्थिक दशा को सुधारने में बहुत बड़ी मदद मिल सकती है।
अध्ययनों से पता चलता है कि इस सामाजिक बुराई ने किस प्रकार
अर्थव्यवस्था के विकास को भी अवरुद्ध कर दिया है।
कम उम्र में मां बनने से मां और बच्चे दोनों को खतरा रहता है। जहां एक ओर देश की महिलाओं के स्वास्थ्य की चिंता है वहीं दूसरी ओर लैंगिक समानता की भी चिंता है।
1978 हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन करके लड़कों के लिए कानूनी रूप से विवाह की न्यूनतम आयु 21 वर्ष और लड़कियों के लिए 18 वर्ष निर्धारित की गई थी।लेकिन एक बात समझ से परे है कि आखिर लड़के और लड़कियों की आयु में भिन्नता क्यों आवश्यक है??? कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि लड़की आयु में बड़ी भी हो तो इससे विवाह में कोई दिक्कत नहीं आती, दकियानूसी सोच के सिवाय।
जब समाज के हर क्षेत्र में परिवर्तन हो रहा है और उसे स्वीकार भी किया जा रहा है, तो विवाह आयु में क्यों परिवर्तन स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए???
समाज की उपयोगिता को ध्यान में रखकर इसका विश्लेषण होना चाहिए।
केंद्र सरकार ने जून २०२० में इसी के मद्देनजर एक टास्क फोर्स का गठन किया है। जो महिलाओं की गर्भावस्था से लेकर मां, बच्चे की चिकित्सकीय वयवस्था, स्वास्थ्य व पोषण तथा विवाह आयु सभी के विषय में जांच कर रही है।
प्रधान सेवक ने यह स्पष्ट किया है कि टास्क फोर्स की रिपोर्ट आते ही सरकार इस विषय पर निर्णय लेगी। लड़कियों की विवाह आयु में परिवर्तन लैंगिक समानता की ओर एक मजबूत व सराहनीय कदम होगा।
लोग तर्क देते हैं कि 18 साल तक लड़कियां विवाह के योग्य हो जाती हैं, लेकिन क्या सिर्फ शारीरिक परिपक्वता ही आवश्यक है। मानसिक परिपक्वता कोई मायने नहीं रखती है।
सही बात तो यह है कि अभी भी हमारे समाज में बहुतायत लोगों को बेटियां संबल नहीं अपितु बोझ भरी जिम्मेदारी लगती हैं। और उस बोझ को उतारने का सबसे सरल तरीका है विवाह करके छुटकारा पाना।
कहते हैं शिक्षित करके क्या करना है जब चूल्हा चौका ही करना है।
घर बसाना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन उसके लिए लड़की का शिक्षित होने के साथ-साथ शारीरिक और मानसिक तौर पर तैयार होना भी जरूरी है।
हमें यह समझना है कि शिक्षा सिर्फ आर्थिक लाभ के लिए नहीं होती, यह हमारे अधिकारों के प्रति हमें जागरूक भी करती है।
अगर लड़कियों की विवाह आयु बढ़ती है तो घरेलू हिंसा की दर में तो कमी आएगी ही साथ ही जनसंख्या नियंत्रण पर भी इसका बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
यदि लड़की शिक्षित और समझदार होगी तो वह अपने और अपने परिवार के भविष्य के प्रति जिम्मेदारी का भली-भांति निर्वाह कर सकेगी।
एक बात सरकार के लिए बहुत जरूरी है कि यह सभी धर्मों के लिए आवश्यक होना चाहिए। माना कि कुछ लोग विरोध अवश्य करेंगे। परंतु कोई भी धर्म मानव जीवन की रक्षा में विमुख नहीं हो सकता।
कोई भी धर्म इस बात को नहीं स्वीकार करता की कम उम्र में विवाह करके लड़कियों के जीवन को मौत के मुंह में धकेला जाए साथ ही उनके मान सम्मान का हनन किया जाए।
हमारा सनातन धर्म तो अनादि काल से ही नारी शक्ति को मान सम्मान देता रहा है। हमें तो बस जरूरत है अपनी पुरानी संस्कृति और परंपरा का स्मरण करने की और अपने दिल और दिमाग पर पड़ी धूल साफ करने की।
नवरात्रि के पावन पर्व पर नौ देवियों की पूजा, उपासना, आराधना से यही सीख लेनी चाहिए कि नारी शक्ति के हर रूप का आदर और सम्मान सुरक्षित रखने के लिए उनके हितों की सर्वोपरि रक्षा की जाए तभी सही मायने में
“या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः।