श्रीराम जी की कथा का रसपान करके हम जीवन में आने वाले कष्टों को कर सकते हैं दूर

हम हमारे छोटे से जीवन में, कैसे आने वाले कष्टों से बच पायें, कैसे उनका निवारण कर पायें, निश्चित ही इसका उपाय श्रीराम जी की कथा का रसपान करना ही है। कारण कि वैसे तो कर्मों के प्रभाव से बचना असंभव है, लेकिन अगर श्रीराम जी की कथा का अभेद्य कवच हमें मिल जाये, तो उसे काल द्वारा भेदना भी सर्वदा असंभव है।

श्रीसती जी को भी अपने जीवन में यह पावन अवसर प्राप्त हुआ था, कि वे श्रीराम जी की पुनीत कथा का रसपान करती। किंतु कुबुद्धि के दुष्प्रभाव में आकर, वे इस सुअवसर से वंचित रह जाती हैं। जिसका परिणाम यह होता है, वे श्रीसती जी, जिन्होंने भगवान शंकर जी को पति रुप में वरण करने के लिए, अपने समस्त सुखों व रिश्तों की तिलांजलि दी, आज उन्हीं, भगवान शंकर जी की बात पर उन्हें शंका हो रही है। कारण कि जब श्रीसती जी ने, भगवान शंकर जी को देखा, कि वे दोनों हाथ जोड़ कर, श्रीराम जी को प्रणाम कर रहे हैं, तो श्रीसती जी के मन में अनेकों प्रश्नों ने जन्म ले लिआ। वे देख रही हैं, कि शंकर भगवान ने वनवासी श्रीराम जी के दर्शन क्या किए, वे तो प्रेम भाव से बाहर ही नहीं निकल पा रहे हैं। कारण कि शंकर भगवान श्रीराम जी को प्रणाम कर वहाँ रुके नहीं, अपितु आगे बढ़ गये। पूरे रास्ते भगवान शंकर, श्रीराम जी की दिव्य लीलायों का ही गान कर रहे हैं-

‘जय सच्चिदानंद जग पावन।

अस कहि चलेउ मनोज नसावन।।

चले जात सिव सती समेता।

पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता।।’

श्रीसती जी आश्चर्यचकित हैं, कि शंकर भगवान ने एक राजपुत्र को ‘सच्चिदानंद’ कहकर प्रणाम क्यों किया? वे तो एक वनवासी हैं। जो कि अपनी पत्नी के वियोग में व्याकुल होकर वन में यहाँ-वहाँ भटक रहे हैं। पूरी दुनिया शंकर जी को पूजती है। लेकिन वे ही किसी को पूजने लगें, और वह भी एक राजा के पुत्र को, तो यह बात मेरे गले नहीं उतरती-

‘बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी।

सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी।।

खोजइ सो कि अग्य इव नारी।

ग्यानधाम श्रीपति असुरारी।।’

श्रीसती जी सोच में पड़ी हैं, कि अगर श्रीराम जी विष्णु जी के अवतार हैं, तो स्वाभाविक है, कि वे भी भगवान शंकर जी की भाँति ही सर्वज्ञ होंगे। उनसे भला संसार में क्या छुपा होगा? वे तो कण-कण की चाल से अवगत होंगे। फिर वे ज्ञान के भण्डार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान विष्णु, क्या ऐसे अज्ञानीयों की भाँति अपनी स्त्री को खोजेंगे?

श्रीसती जी सोचती हैं, कि जो ब्रह्म काल से परे है। जिसे सरीर की परिधि में बाँधा नहीं जा सकता। जो सकल ब्रह्माण्ड़ में व्याप्त है। जो किसी से भी अभेद है। क्या वो ऐसे नर बन कर संसार की पीड़ायों को सहन करेगा? निश्चित ही ऐसा संभव नहीं है।

लेकिन फिर ऐसा भी कैसे हो सकता है, कि भगवान शंकर के वचन असत्स सिद्ध हो सकें? कारण कि भगवान शंकर द्वारा ‘जय सच्चिदानंद’ का घोष करना, अपने आप में प्रमाण है, कि वे वनवासी कोई मानव नहीं, अपितु साक्षात भगवान हैं।

सज्जनों! ऐसे में श्रीसती जी को निश्चित ही ऐसा करना चाहिए था, कि वे भोलेनाथ जी के चरणों में गिर कर क्षमा याचना करती। विनयपूर्वक कहती, कि हे प्रभु मेरी सोच व चिंतन आपके दिव्य भावों से अलग चल रहे हैं। मैं वैसा सोच व देख ही नहीं पा रही, जो कि आप देख पा रहे हैं। निश्चित ही यह मेरी कमी है। मुझमें ऐसा अवगुण कैसे प्रवेश कर गया, मुझे समझ ही नहीं आ रहा? अब तो आप ही मुझे इस भँवर से निकालो। मैं तो बस आपकी शरणागत हुँ।

क्या श्रीसती जी भगवान शंकर को सचमुच शरणागत हो पाती हैं? या फिर वे कोई अन्य मार्ग को चुनती हैं। जानेंगे अगले अंक में—(क्रमशः)—जय श्रीराम।

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