रामचरितमानस- जानिये भाग-8 में क्या क्या हुआ

श्री रामचन्द्राय नम:

 

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥

 

जौं बरषइ बर बारि बिचारू। हो हिं कबित मुकुतामनि चारू॥

 

गोस्वामी जी कहते हैं कि यदि काव्य में श्रेष्ठ विचार रूपी जल बरसता है तो वह मुक्ता मणि के समान सुंदर कविता (काव्य) होती है॥

 

जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।

पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥

 

उन कविता रूपी मुक्तामणियों को युक्ति से बेधकर फिर रामचरित्र रूपी सुंदर तागे में पिरोकर सज्जन लोग अपने निर्मल हृदय में धारण करते हैं, जिससे  उनके हृदय में भगवान राम के प्रति अति अनुराग बढ़ता है।

 

जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥

चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़े॥

 

जो कराल कलियुग में जन्मे हैं, जिनकी करनी कौए के समान है और वेष हंस जैसा है, जो वेदमार्ग को छोड़कर कुमार्ग पर चलते हैं, जो कपट की मूर्ति और कलियुग के पापों के वाहक हैं॥

 

बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥

तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरम ध्वज धंधक धोरी॥

 

जो श्री रामजी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन (लोभ), क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दम्भी और कपट के धन्धों का बोझ ढोने वाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है॥

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ ॥

ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥

 

यदि मैं अपने सब अवगुणों को कहने लगूँ तो कथा बहुत बढ़ जाएगी और मैं पार नहीं पाऊँगा। इससे मैंने बहुत कम अवगुणों का वर्णन किया है। बुद्धिमान लोग थोड़े ही में समझ लेंगे॥

 

समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥

एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥

 

मेरी अनेकों प्रकार की विनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नहीं देगा। इतने पर भी जो शंका करेंगे, वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धि के कंगाल हैं॥

 

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥

कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥

 

गोस्वामी जी स्वयं को तुच्छ मानते हुए कहते हैं—

मैं न तो कवि हूँ, न चतुर हूँ, बस अपनी बुद्धि के अनुसार श्री रामजी के गुण गाता हूँ। कहाँ तो श्री रघुनाथजी के अपार चरित्र, कहाँ संसार में आसक्त मेरी बुद्धि।

 

जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥

समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥

 

जिस हवा से सुमेरु जैसे पहाड़ उड़ जाते हैं, कहिए तो, उसके सामने रूई किस गिनती में है। श्री रामजी की असीम प्रभुता को समझकर कथा रचने में मेरा मन बहुत हिचकता है।

 

सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।

नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥

 

सरस्वतीजी, शेषजी, शिवजी, ब्रह्माजी, शास्त्र, वेद और पुराण- ये सब ‘नेति-नेति’ कहकर सदा जिनका गुणगान किया करते हैं॥

 

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥

तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥

 

यद्यपि प्रभु श्री रामचन्द्रजी की प्रभुता को सब जानते हैं, तथापि कहे बिना कोई नहीं रहता। इसमें वेद ने ऐसा कारण बताया है कि भजन का प्रभाव बहुत तरह से कहा गया है। (अर्थात भगवान की महिमा का पूरा वर्णन तो कोई कर नहीं सकता, परन्तु जिससे जितना बन पड़े उतना भगवान का गुणगान करना चाहिए, क्योंकि भगवान के गुणगान रूपी भजन का प्रभाव बहुत ही अनोखा है, उसका नाना प्रकार से शास्त्रों में वर्णन है। थोड़ा सा भी भगवान का भजन मनुष्य को सहज ही भवसागर से तार देता है)

 

एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥

ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥

 

जो परमेश्वर एक है, जिसकी कोई इच्छा नहीं है, जिसका कोई रूप और नाम नहीं है, जो अजन्मा, सच्चिदानन्द और परमधाम है और जो सबमें व्यापक एवं विश्व रूप हैं, उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकार की लीला की है॥

 

सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥

जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥

 

वह लीला केवल भक्तों के हित के लिए ही है, क्योंकि भगवान परम कृपालु हैं और शरणागत के बड़े प्रेमी हैं। जिनकी भक्तों पर बड़ी ममता और कृपा है, जिन्होंने एक बार जिस पर कृपा कर दी, उस पर फिर कभी क्रोध नहीं किया॥

 

गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥

बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥

 

वे प्रभु खोई हुई वस्तु को फिर प्राप्त कराने वाले, दीनबन्धु सरल स्वभाव, सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान लोग उन श्री हरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र कराते हैं।

 

तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥

मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥

 

उसी बल से मैं श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर श्री रघुनाथजी के गुणों की कथा कहूँगा। इसी विचार से (वाल्मीकि, व्यास आदि) मुनियों ने पहले हरि की कीर्ति गाई है। भाई! उसी मार्ग पर चलना मेरे लिए सुगम होगा॥

 

अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।

चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥

 

जो अत्यन्त बड़ी श्रेष्ठ नदियाँ हैं, यदि राजा उन पर पुल बना दे, तो अत्यन्त छोटी चींटियाँ भी उन पर चढ़कर बिना ही परिश्रम के पार चली जाती हैं। (इसी प्रकार मुनियों के वर्णन के सहारे मैं भी श्री रामचरित्र का वर्णन सहज ही कर सकूँगा)

 

एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥

ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥

 

इस प्रकार मन को बल दिखलाकर मैं श्री रघुनाथजी की सुहावनी कथा की रचना करूँगा। व्यास आदि जो अनेकों श्रेष्ठ कवि हो गए हैं, जिन्होंने बड़े आदर से श्री हरि के सुयश का वर्णन किया है मैं भी उनका ही अनुसरण करूंगा।

 

शेष अगले प्रसंग में ——

 

राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥

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