रामचरितमानस- जानिये भाग-15 में क्या क्या हुआ

श्री रामचन्द्राय नम:

 

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥

 

श्री रामगुण और श्री रामचरित्‌ की महिमा 

 

अब गोस्वामी जी आनंदकंद भगवान श्रीराम के चरित्र और उनके श्रेष्ठ गुणों का बखान करते हुए कहते हैं —-

 

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥

राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥

 

वे श्री रामजी मेरी बिगड़ी सब तरह से सुधार लेंगे, जिनकी कृपा कृपा करने से नहीं अघाती। राम जैसा उत्तम स्वामी और मुझ जैसा बुरा सेवक! इतने पर भी उन दयानिधि ने अपनी ओर देखकर मेरा पालन किया है॥

लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥

गनी गरीब ग्राम नर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥

 

लोक और वेद में भी अच्छे स्वामी की यही रीति प्रसिद्ध है कि वह विनय सुनते ही प्रेम को पहचान लेता है। अमीर-गरीब, गँवार-नगर निवासी, पण्डित-मूर्ख, बदनाम-यशस्वी॥

 

सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥

साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥

 

सुकवि-कुकवि, सभी नर-नारी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार राजा की सराहना करते हैं और साधु, बुद्धिमान, सुशील, ईश्वर के अंश से उत्पन्न कृपालु राजा

 

सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥

यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥

 

सबकी सुनकर और उनकी वाणी, भक्ति, विनय और चाल को पहचानकर सुंदर वाणी से सबका यथायोग्य सम्मान करते हैं। यह स्वभाव तो संसारी राजाओं का है, कोसलनाथ श्री रामचन्द्रजी तो चतुरशिरोमणि हैं॥

 

रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥

 

श्री रामजी तो विशुद्ध प्रेम से ही रीझते हैं, पर जगत में मुझसे बढ़कर मूर्ख और मलिन बुद्धि और कौन होगा?॥

 

सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।

उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥

 

तथापि कृपालु श्री रामचन्द्रजी मुझ दुष्ट सेवक की प्रीति और रुचि को अवश्य रखेंगे, जिन्होंने पत्थरों को जहाज और बंदर-भालुओं को बुद्धिमान मंत्री बना लिया॥

 

हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।

साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥

 

सब लोग मुझे श्री रामजी का सेवक कहते हैं और मैं भी कहने वालों का विरोध नहीं करता कृपालु श्री रामजी इस निन्दा को सहते हैं कि श्री सीतानाथजी, जैसे स्वामी का तुलसीदास सा सेवक है॥

 

अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥

समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥

 

यह मेरी बहुत बड़ी ढिठाई और दोष है, मेरे पाप को सुनकर नरक ने भी नाक सिकोड़ ली है नरक में भी मुझे जगह नहीं मिलेगी, यह समझकर मुझे खुद ही से डर लग रहा है, किन्तु भगवान श्री रामचन्द्रजी ने तो स्वप्न में भी इस मेरी इस ढिठाई और दोष पर ध्यान नहीं दिया॥

 

सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥

कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥

 

बल्कि उन्होने तो इस बात को सुनकर, देखकर और अपने सुचित्त रूपी चक्षु से निरीक्षण कर मेरी भक्ति और बुद्धि की सराहना की।  मैं चाहे अपने को भगवान का सेवक कहता-कहलाता रहूँ परन्तु हृदय में अच्छापन होना चाहिए।  मैं तो अपने को उनका सेवक बनने योग्य नहीं मानकर पापी और दीन ही मानता हूँ। श्री रामचन्द्रजी भी दास के हृदय की शुद्धता जानकर रीझ जाते हैं॥

 

रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥

जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली॥

 

प्रभु के चित्त में अपने भक्तों की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती। वे अपने भक्तों के हृदय की अच्छाई-नेकी को सौ-सौ बार याद करते रहते हैं। जिस पाप के कारण उन्होंने बालि को व्याध की तरह मारा था, वैसी ही कुचाल फिर सुग्रीव ने चली।

 

सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहूँ सो न राम हियँ हेरी॥

ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥

 

वही करनी विभीषण की थी, परन्तु श्री रामचन्द्रजी ने स्वप्न में भी उसका मन में विचार नहीं किया। उलटे भरतजी से मिलने के समय श्री रघुनाथजी ने उनका सम्मान किया और राजसभा में भी उनके गुणों का बखान किया॥

 

प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।

तुलसी कहूँ न राम से साहिब सील निधान॥

 

प्रभु तो वृक्ष के नीचे और बंदर डाली पर अर्थात कहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्री रामजी और कहाँ पेड़ों की शाखाओं पर कूदने वाले बंदर, परन्तु ऐसे बंदरों को भी उन्होंने अपने समान बना लिया। तुलसीदासजी कहते हैं कि श्री रामचन्द्रजी सरीखे शीलनिधान स्वामी कहीं भी नहीं हैं॥

 

राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।

जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥

 

हे श्री रामजी! आपकी अच्छाई से सभी का भला है अर्थात आपका कल्याणमय स्वभाव सभी का कल्याण करने वाला है यदि यह बात सच है तो तुलसीदास का भी सदा कल्याण ही होगा॥

 

एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।

बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥

 

इस प्रकार अपने गुण-दोषों को कहकर और सबको फिर सिर नवाकर मैं श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करता हूँ, जिसके सुनने से कलियुग के पाप नष्ट हो जाते हैं॥

 

जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥

कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥

 

मुनि याज्ञवल्क्यजी ने जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी को सुनाई थी, उसी संवाद को मैं बखानकर कहूँगा, सब सज्जन सुख का अनुभव करते हुए उसे सुनें।

 

संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥

सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा। 

 

शिवजी ने पहले इस सुहावने चरित्र को रचा, फिर कृपा करके पार्वतीजी को सुनाया। वही चरित्र शिवजी ने काकभुशुण्डिजी को रामभक्त और अधिकारी पहचानकर दिया॥

 

तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥

ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥

 

उन काकभुशुण्डिजी से फिर याज्ञवल्क्यजी ने पाया और उन्होंने फिर उसे भरद्वाजजी को गाकर सुनाया। वे दोनों वक्ता और श्रोता समान शील वाले और समदर्शी हैं और श्री हरि की लीला को जानते हैं॥

 

जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥

औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥

 

वे अपने ज्ञान से तीनों कालों की बातों को हथेली पर रखे हुए आँवले के समान (प्रत्यक्ष) जानते हैं। और भी जो सुजान (भगवान की लीलाओं का रहस्य जानने वाले) हरि भक्त हैं, वे इस चरित्र को नाना प्रकार से कहते, सुनते और समझते हैं॥

 

मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।

समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥

 

फिर वही कथा मैंने वाराह क्षेत्र में अपने गुरुजी से सुनी, परन्तु उस समय मैं लड़कपन के कारण बहुत नासमझ था, इससे उसको अच्छी तरह समझ नहीं पाया ।

 

शेष अगले प्रसंग में ——

 

राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥

Related posts

Leave a Comment