बोले संघ प्रमुख मोहन भागवत-पर्यावरण को पवित्र मानकर संरक्षण की परंपरा शुरू करें,

पानी ऐसा विषय है जिसका महत्व समझाने की आवश्यकता नहीं है। हमारी संस्कृति जंगल और कृषि पर आधारित रही है। ऐसे में प्राकृतिक संपदा के बिना प्रकृति का वर्णन नहीं हो सकता। हमने कृषि व विकास के लिए पश्चिमी अवधारण को अपनाया है। जिस कारण हमें इसके दुष्परिणाम भी देखने पड़ रहे है। अब जो हो गया सो हो गया लेकिन अब अपनी संस्कृति व संस्कारों की और लौटने का समय है। इसके लिए पर्यावरण को पवित्र मानकर संरक्षण की परंपरा शुरू करें।कुछ इस तरह के विचार स्वयं सेवक संघ के सर संघचालक डा. मोहन भगवत ने बुधवार को सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय में आयोजित संगोष्ठी में प्रकट किए। संघ के सर संघचालक डा. मोहन भगवत ने आगे कहा कि पानी के लिए देश में बड़े-बड़े बांध बनाए गए हैं। जिसे असंतुलन की स्थिति बन गई है। कहीं पानी की कमी दूर हो गई है, जबकि कहीं किल्लत भी हो गई है। पानी को लेकर झगड़े शुरू हो गए हैं। जबकि नदी के पानी पर सबका अधिकार होता है। हमें इन सब बातों के निदान पर विचार करना होगा।हमने विकास के लिए पश्चिम की अवधारणा को अपनाया और पर्यावरण को लेकर भी अवधारणा तैयार कर ली। अब सबको एक साथ कैसे साधा जाए, इसके लिए समग्र दृष्टि की जरूरत है। अब हमें वापस अपनी संस्कृति व संस्कारों की और लौटना होगा। पानी को लेकर सिर्फ विचार करने से कार्य नहीं चलेगा, दूसरे उपाय भी सोचने होंगे। बरसात के पानी को संचित करने को लेकर भी चुनौती बढ़ गई है। पर्यावरण को लेकर डा. भागवत ने कहा कि हम सबको पर्यावरण को पवित्र मानकर संरक्षण की परंपरा शुरू करनी होगी।सर संघचालक ने संबोधन के दौरान कहा कि मैं खुद भी पशु चिकित्सक रहा हूं और पशुओं का महत्व समझता हूं। उन्होंने कहा कि हमारे यहां गाय दूध के लिए नहीं खेती के लिए पाली जाती थी। क्योंकि मशीन से खेती करने से जमीन को खराब करती है। इसलिए बैलों से खेती की जाती थी और किसान कम खर्च व पानी की मदद से खेती करता था। इसलिए गाय खेती के लिए प्रयोग होती थी। चार सौ साल पहले विदेशी अपनी गायों की नस्ल सुधार करने के लिए पश्चिम में लेकर गए थे। ऐसे ही धान की तमाम प्रजातियां अपने यहां थी, जिसे पश्चिम के देश अपने यहां ले गए और खेती शुरू कर दी।जल संरक्षण को लेकर गुजरात व महाराष्ट्र का उदाहरण देते हुए डा. भागवत ने कहा कि दोनों राज्यों में पानी की किल्लत दूर करने के लिए बेहतर प्रबंधन किया गया है। क्योंकि ग्लेशियर से गंगा, ब्रहमपुत्र, यमुना व सिंघु नदी को ही पानी पानी मिलता है। जबकि देश की अन्य नदियों को सदानीरा जंगल करते हैं। जंगल में पेड़ों के मूल से पानी रिस कर नदियों में पहुंचता है। इसलिए जंगलों को बचाना जरूरी है। आधुनिक विकास के कारण उपजाऊ जमीन का खराब होना, जंगल का उजड़ जाना एक तरीका जरूर बना है लेकिन जल संपदा, जन संपदा, वन संपदा का के बीच गहरा नाता है।

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