डॉ कुसुम पांडेय
गंगा मैया करे पुकार….
बचाओ मेरी अविरल जलधार…
सब आते मेरे जल से…
पाप धोकर पुण्य कमाने…
लेकिन मैं खुद कहां जाऊं
खुद को शुद्ध कराने
जहां मेरे जल को अमृत का वरदान मिला है….
वही मानव जाति ने अजब विरोधाभास किया है…
जिसके जल को जीवनदायिनी माना जाता है….
जिसका जल सारे तीर्थों का पुण्य करा देता है…
उसी गंगा मैया का जल मैला करके…
फिर उसी जल से खुद को शुद्ध करते
मैं समझ नहीं पाई यह बात….
क्यों मानव अपनी अज्ञानता का नहीं करता भान…
क्यों नहीं कर पाता अमृत जलधारा का सम्मान….
क्यों नहीं हम समझ पाते????
तन के नहीं मन के पाप धोने हैं…
गंगा मैया के दर्शन मात्र से ही…
सारे पुण्य कर्म होने हैं…
सिर्फ दिखावे की आस्था का त्याग कर
हमें गंगा मैया के अमृत को बचाकर
पीढ़ियों तक अविरल जलधार बहानी है…
अपनी नादानी से यह धरोहर नहीं मिटानी है।