अंतर्मन के आंगन में रंगोत्सव

होली का उत्सव अंतर्मन के आंगन में चलने वाले चिंतन की ओर इंगित करता है। होली हमारी चेतना का उत्सव है। चेतना में प्रवाहित विविध रंगों का उत्सव है। कबीर ने कहा कि जिसने मन की गांठ नहीं खोली, वह होली के उत्सव को महसूस नहीं कर सकेगा। होली का तात्पर्य है-रस के साथ रंग। कबीर कहते हैं कि ‘गांठ खेल परखा नाहिं या विधि व्यवहार’ । अगर मन की गांठ खुलेगी, तभी वह गाढ़ी और शाश्वत रंग की दिखेगी।

अस्तित्व में सदैव उत्सव है। इस विराट में प्रतिदिन होली मनाई जाती है। प्रकृति में, आकाश में सूर्य की किरणों में रंगों का उत्सव सुबह से शाम तक चलता रहता है। प्रतिदिन ही प्रकृति में रंग छिटकते हैं। प्रतिदिन बहुरंगी फूल खिलते हैं। हर नये कोंपल और झरते पत्तों के साथ रंगों का रस हमारे मन पर चढ़ता है। रंगों का यह प्रवाह ही होली है।

प्रकृति सदैव उत्सव मनाती है। इस विराट में जंगल, पौधे, पशु, नदियों का हर दिन उत्सव है। प्रकृति स्वतंत्र है, इस विराट में सब स्वावलंबी हैं। वे प्रतिपल जगत के उत्सव के साथ गमन कर रहे हैं। इसलिए उनके जीवन में सदैव ऊर्जा है। ऊर्जा से परिपूर्ण अस्तित्व को अलग से उत्सव की आवश्यकता नहीं है। स्वाभाविक मानव जीवन ही फागुन है। जीवन में संगीत का संचार हो और नृत्य का भाव हो, इसलिए उत्सव है।

होली केवल बाहर की नहीं, अंदर की भी है। जिस प्रकार सिर्फ लकड़ी जलाकर होलिका दहन संभव नहीं है, उसी प्रकार केवल रंग लगाकर होली का आनंद पूरा नहीं हो सकता। मन के सभी विकारों और आसक्तियों को जलाना ही होलिका दहन है। उसी प्रकार चेतना को रस रंग में सराबोर करना ही होली है। होली का उत्सव सनातन है। यह शाश्वत है। कृष्ण के साथ वृंदावन में होली का महारास है तो राम के साथ मर्यादा का आरोहण है। यह भी चेतना को शाश्वत रूप से रंगीन बनाने की यात्रा है। फिर महादेव के साथ अनंत होली है। शिव होली है। होली में शिव ही रंग हैं यानी जो शुभ है, श्रेष्ठ हैं, उससे अपनी चेतना का आरोहण कराना।

प्रेम के रंग से परम की प्राप्ति होती है, तो होली के साथ सब रंगों का संयोजन निश्चित ही व्यक्ति को प्रेम के विविध सोपान तक पहुंचाता है। होली के रंग कुंठा से मुक्त करते हैं। भेद मिटाकर सभी को अभेद रूप से अभिन्न कर देते हैं। होली के रस के कारण ही तुलसी ने मानस में लिखा है कि ‘गुणोपासक मोक्ष न लेहीं’। जो सगुणी हो, जिन्होंने परम में सगुण का स्वरूप दर्शन किया है, वह मोक्ष क्यो लेगा! जब मोक्ष देह से आबद्ध है, जब इंद्रियों से प्रेम के परम रस का अस्वाद संभव है, तब कौन नहीं मुक्ति को नया अर्थ देना चाहेगा।

भारतीय संस्कृति में मुक्ति के लिए मन, वचन, कर्म और ध्यान के माध्यम बताया गया है। होली ही ऐसा उत्सव है, जिसमें प्रेम रस में मन ध्यानमग्न रहता है। उसके सांस्कृतिक एवं सामाजिक धारा के साथ कर्मयोग की साधना चलती है। होली देह को नहीं, अंतस को भिगोती है। देह पर रंग की बरसात को इंद्रियां अनुभव करती हैं और मन तथा वचन पर होली का सुवास हमारी आत्मा का आस्वाद बनता है।

ईश्वर की ओर गमन का सरल मार्ग प्रेम और भक्ति का मार्ग है। इसमें होली का रंग अद्भुत है। गंगा पर अवधूत की होरी है, सरयू पर विभूतियों की होली है और यमुना तट पर प्रेमियों का महारास है। सब ओर रस, रंग और लास्य का महोत्सव है। सूरदास की पंक्तियां हैं- ‘हरि संग खेलत हैं सब फाग। इहिं मिस करति प्रगट गोपी, उर अंतर को अनुराग।’होली गोपियों के वृंदावन से प्रेम रस के साथ चलती है और अवध के लोक में चिंतन रस को पसारती है। फिर काशी में गंगा के किनारे मसाने पर पूरे अंतर्मन को रंगीन कर देती है। यह संसार रंग से परिपूर्ण है, अतएव जीवन को भी रंगों से भरा होना चाहिए। हर व्यक्ति रंगों का समुच्चय है। हमारी चेतना का स्वभाव ही उत्सव का है। उत्सव के साथ पवित्रता और सहजता को जोड़ दिया जाए तो वह पूर्ण रूप धारण करता है। ऐसा होने पर ही हमारे शरीर, मन और आत्मा तीनों इस उमंग में शामिल हो जाते हैं।जब चेतना उत्सव मनाती है, तो जीवन बहुआयामी एवं बहुरंगी होता है। जब हम जाग्रत होते हैं, चैतन्य की अवस्था को प्राप्त करते है तो ईश्वर का प्रसाद मिलता है। फूलों में रस, गंध, रंग और फल के रूप में मिठास एवं तृप्ति मिलती है, तो मनुष्य उसके अनुग्रह से ओतप्रोत हो जाता है।

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