स्व० मुरलीधर मिश्र की तेरहवीं आज

काश! वह कुछ और साल हमारे बीच रहते

मुनेश्वर मिश्र

क्या लिखूं, वैâसे लिखूं….। वरिष्ठ पत्रकार पं० मुरलीधर मिश्र नहीं रहे, यह अहसास जजबातों को घायल कर जाता है। मुझे पत्रकारिता की राह उन्होंने ही दिखायी थी। नौकरी के लिए भागमभाग और प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए दिन रात एक करने का समय था ७० और ८० का दशक। पुराना कटरा के एक लाज में जब रहने आया तो वहीं मुरलीधर भैया से जान पहचान हुई। उस समय वह हिन्दी दैनिक ‘देशदूत’ में कार्यरत थे। उस लाज में रह रहे लगभग एक दर्जन छात्र प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे। समय के अन्तराल में किसी न किसी छात्र की कहीं न कहीं नौकरी लगती जा रही थी। वर्ष १९७७ में ‘अमृत प्रभात’ अखबार निकला तो मुरलीधर भैया उसमें चले गये। एक दिन उन्होंने बताया कि ‘अमृत प्रभात’ में उपसम्पादकों की नियुक्तियां होनी हैं, इसके लिए लिखित परीक्षा होगी, चाहो तो किस्मत आजमा सकते हो। मेरा आवेदन पत्र लेकर वह स्वयं गये, टेस्ट हुआ, उसमें मैं पास हो गया, फिर उनके साथ पत्रकारिता का सफर शुरू हो गया। अन्य छात्रों के अलावा मुरलीधर भैया और मेरी भी सरकारी नौकरी लगी पर हम लोग इन नौकरियों से बेहतर पत्रकारिता को समझते रहे। मुरलीधर भैया ने तो पोस्ट एण्ड टेलीग्राफ विभाग की नौकरी बदायूं में ज्वाइन की और १५ दिन बाद ही बदायूं छोड़कर इलाहाबाद चले आये और कहा कि मुझे पत्रकारिता से अच्छी सरकारी नौकरी नहीं लगती। स्व० मिश्र के छोटे भाई श्री बंशीधर मिश्र भी राजनीति शास्त्र से एम०ए० करने के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए मैदान में उतरे पर पत्रकारिता का जुनून उन पर भी हावी हो गया। स्वतंत्र भारत के रास्ते वह अमर उजाला पहुंचे और स्थानीय सम्पादक बनकर पत्रकारिता में एक अलग मुकाम हासिल किया।
अस्सी का दशक अमृत प्रभात का स्वर्णिम काल था। ९० के दशक में जब इस समाचार पत्र के पतन का दौर शुरू हुआ तो स्व० मिश्र ने किसी और अखबार में जाने का मन बना लिया। वर्ष १९९७ में वह ‘अमर उजाला’ चले गये। कुछ दिनों बाद उनका इलाहाबाद से बरेली तबादला हो गया जहां पूर्ण निष्ठा और समर्पण से कार्य करते हुए वर्ष २०११ में वह मुख्य उपसम्पादक के पद से सेवानिवृत्त हुए। निर्मल मन और राग द्वेष से परे मुरलीधर भैया का व्यक्तित्व बरगद के विशाल वृक्ष की तरह था जो प्राण वायु देने के साथ सुखद और शीतल अहसास प्रदान करता था। इलाहाबाद में प्रवास के दौरान मुझे ऐसा कोई शख्स नहीं मिला जिसने स्व० मिश्र की बुराई की हो। उनका व्यक्तित्व एक शांत समुन्दर जैसा था जिसके अतल में दुश्वारियां तो आती थीं पर ऊपर से कोई प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिलती थी। वह न हार मानते थे और न ही रार ठानते थे। अपने शांत स्वभाव से वह लोगों को मोह लेते थे।
जाने माने पत्रकार तथा ‘दैनिक जागरण’ से हाल में अवकाश ग्रहण करने वाले श्री रामधनी द्विवेदी ने स्व० मिश्र के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है। हिन्दी दैनिक ‘जनसत्ता’ के पत्रकार श्री रामजन्म पाठक ने उनकी मौत पर शोक व्यक्त करते हुए कहा कि ‘‘मैने अब तक श्री मुरलीधर मिश्र के अलावा किसी और को भैया शब्द से सम्बोधित नहीं किया। मैं पूरी श्रद्धा से उनको भैया कहता था।’’ मेरे जैसे लोग जब किसी समस्या के समाधान के लिए उनके पास जाते थे तो समस्या सुनने के बाद वह कुछ देर तक खामोश रहते थे, फिर ऐसा समाधान प्रस्तुत करते थे कि समस्या का उचित हल निकल ही आता था। कम संसाधनों में बड़ा काम कर डालने की उनमें महारत थी। मै कभी-कभी उनसे कहता था कि आपको तो देश का वित्त मंत्री होना चाहिए था तो वह हल्के से मुस्कुरा देते थे। बीमारी के दिनों में जब कभी उनकी तबीयत ठीक रहती थी, वह घर के कामकाज में लग जाते थे। बीमार पड़ने के पहले तक उनकी दिनचर्या नियमित थी और वह रोज टहलने निकलते थे। मैं उनकी स्मरण शक्ति का कायल था। वह वर्षों पूर्व के घटनाक्रमों का ऐसा सिलसिलेवार जिक्र करते कि मैं दंग रह जाता था। इलाहाबाद विश्वविद्याल से संस्कृत साहित्य में एम०ए० करने के कारण संस्कृत भाषा पर उनकी गहरी पकड़ थी। आपसी बातचीत के दौरान वह कभी-कभी संस्कृत के श्लोकों का सस्वर वाचन करते थे। आध्यात्मिकता उनके व्यक्तित्व का एक विशेष पहलू था।
इस असार संसार से हर एक को एक न एक दिन जाना ही पड़ता है पर कुछ के जाने के साथ लोग उन्हें भूल जाते हैं और उनके बारे में बहुत अच्छी धारणा व्यक्त नहीं करते हैं। जाना उसी का सार्थक है जिसके जाने के बाद घर परिवार के अलावा अन्य लोगों की आंखों से भी आंसू छलक जायें। स्व० मिश्र के अचानक चले जाने से एक रिक्तता पैदा हो गयी है। उनकी कमी उनके तीनों पुत्रों, बहुओं और उनके भाई को तो खलेगी ही, हम जैसे लोग भी नियति के इस व्रूâर पैâसले को जायज नहीं ठहरा पायेंगे। काश वह अभी कुछ और साल हमारे बीच रहते।
पत्रकारिता के इस अप्रतिम योद्धा को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि।

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