त्रेता में भगवान गणेश ने मयूरेश्वर नाम से अवतार ग्रहण कर अनेक लीलाएं कीं और महाबली सिन्धु के अत्याचारों से सबको मुक्त किया। कठोर तपस्या एवं सूर्य की आराधना से वर पाकर सिन्धु अत्यन्त मदोन्मत्त हो गया। उसकी सेना में असुरों का प्राबल्य हो गया था, जिससे न्याय और सत्य धर्म के मार्ग पर चलने वालों को वह पीड़ित करने लगा। अकारण नर नारियों, अनाथ, अबोध, छोटे शिशुओं की हत्या करने पर वह गर्व का अनुभव करता। पृथ्वी पर रक्त की सरिता बहने लगी। वह पाताल में गया और वहां उसने अपना आधिपत्य जमा लिया। ससैन्य स्वर्ग लोक में चढ़ाई कर वहां शचीपति इन्द्रादि देवताओं को पराभूतकर उसने स्वर्ग में अपना दानवी शासन फैला दिया। सर्वत्र हाहाकार मच गया।इस भयंकर कष्ट से मुक्ति पाने के लिए देवताओं ने अपने गुरु बृहस्पति की शरण ली। उन्होंने पूजा से शीघ्र प्रसन्न होने वाले, परमाराध्य विनायक के संकष्टी चतुर्थी व्रत का अनुष्ठान बतलाया तथा उनका स्मरण करने के लिए निर्देश दिया। देवताओं ने वैसा ही किया। परमप्रभु विनायक प्रकट हुए। सभी देवगणों ने उनकी प्रार्थना की। परमप्रभु गणेश शिव प्रिया माता पार्वती के यहां अवतरित होकर पृथ्वी का भार उतारने का वचन देकर अन्तर्धान हो गये। माता पार्वती भी परमप्रभु गणेश का दर्शन प्राप्त करने के लिए भगवान शंकर से उपदिष्ट एकाक्षरी गणेश मन्त्र (ग) का जप करने लगीं।
कुछ ही समय बाद भाद्रपद मास की शुक्ला चतुर्थी तिथि आयी। सभी ग्रह नक्षत्रों के शुभस्थ एवं अच्छे मंगलमय योग में विराट रूप में पार्वती के सम्मुख भगवान श्रीगणेश का अवतरण हुआ। माता पार्वती बोलीं− प्रभो! मुझे अपने पुत्र रूप का दर्शन कराइए। सर्वसमर्थ के लिए सब कुछ सम्भव है। तत्काल स्फटिक मणितुल्य षड्भुज शिशु क्रीड़ा करने लगा। उनके शरीर की शोभा कांति अद्भुत लाव.य एवं दीप्ति से सम्पन्न थी। उनका वक्ष स्थल विशाल था। उनके चरण कमलों से छत्र, अंकुश और ऊर्ध्व−रेखा युक्त कमल आदि शुभ चिन्ह थे। उनका नाम मयूरेश पड़ा। मयूरेश के आविर्भाव से ही प्रकृति में सर्वत्र एक दिव्य आनन्द की अनुभूति होने लगी। आकाश से देवता सुमन वृष्टि करने लगे। ऋषियों के आश्रम में आनन्द की लहर दौड़ गयी।
उनकी दिव्य लीलाएं आविर्भाव के समय से ही प्रारम्भ हो गयीं। इधर सिन्धु यह वृत्तान्त जानकर अत्यन्त भयभीत हो उठा। उसने बालक के वध के लिए अनेक असुरों को छद्मवेश में भेजना प्रारम्भ कर दिया, किंतु सब मारे गये। फिर उन्होंने दुष्ट वृकासुर तथा कुत्ते के रूपधारी नूतन नामक दैत्य का वध किया। अपने शरीर से असंख्य गणों को उत्पन्न कर कमलासुर की बारह अक्षौहिणी सेना का विनाश कर दिया तथा त्रिशूल से कमलासुर के मस्तक को काट डाला। उसका मस्तक भीमा नदी के तट पर जा गिरा। देवताओं तथा ऋषियों की प्रार्थना पर गणेश वहां मयूरेश (मोरेश्वर) नाम से प्रतिष्ठित हुए।
दुष्ट दैत्य सिन्धु ने जब सभी देवताओं को अपने कारागार में बंदी बना लिया, तब भगवान ने दैत्य को ललकारा। भयंकर युद्ध हुआ। असुर सैन्य पुनः पराजित हुआ। सिन्धु के पुत्र धर्म और अधर्म भी मार डाले गये।
कुपित मायावी दैत्यराज अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्रों से मयूरेश पर प्रहार करने लगा। परंतु सर्वशक्तिमान के लिए अस्त्र शस्त्रों का क्या महत्व। सभी निष्फल हो गये। अंत में महादैत्य सिन्धु मयूरेश के परशु प्रहार से निश्चेष्ट हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसे दुर्लभ मुक्ति प्राप्त हुई। देवगण मयूरेश की स्तुति कररने लगे। भगवान मयूरेश ने सबको आनंदित कर, सुख शान्ति प्रदान किया, अंत में अपनी लीला का संवरण कर वे परम धाम को पधार गये।