प्रसन्नता बन जाए परमात्मा

व्यक्ति का चित्त प्रसन्न रहे तो परमात्मा के दर्शन हो जाएं। यह प्रसन्नता ही परमात्मा बन जाए। मगर आज के भागदौड़ भरे और तनाव के दौर में यह प्रसन्नता आए कैसे? तमाम लोग पैसा कमाने की भागदौड़ में लगे हैं। कोई भी ग्रंथ हो, धर्म हो, अध्यात्म हो, पैसा कमाने के लिए मना नहीं करता, लेकिन धन कमाते हुए भी यदि प्रसन्नता नहीं है तो कहीं पर ठहर कर कुछ विचार तो करना ही चाहिए।कथाओं में एक बात मैं अक्सर कहता रहता हूं। हमारे ग्रंथों में अपनी कुल आय का दशांश निकालने पर बल दिया गया। दशांश यानी जो भी आप महीने में कमा रहे हैं, उसका दस प्रतिशत हिस्सा समाज के लिए, जरूरतमंद लोगों के लिए खर्च किया जाना चाहिए। आप दो लाख रुपये कमा रहे हैं तो 20 हजार निकाल दें।

आपको लगता है कि 20 हज़ार ज्यादा हैं, आप नहीं निकाल पाएंगे तो एक लाख ही कमाएं। फिर दस हजार ही निकालने होंगे। आपाधापी में लोग प्रसन्न रहना तो जैसे भूलते जा रहे हैं। अध्यात्म में प्रसन्न रहने का बहुत महत्व बताया गया है। हर व्यक्ति को प्रसन्न रहना चाहिए, क्योंकि प्रसन्नता परमात्मा तक पहुंचने का द्वार है। हमें प्रसन्न रहते हुए स्वयं की खोज करनी चाहिए।

हम दूसरों को ढूंढ़ने और उनमें कमियां व खूबियाँ खोजने में लगे रहते हैं। एक नजर हमें खुद पर भी डालनी चाहिए। व्यक्ति स्वयं की खोज करें, समाज की सेवा करे और परमात्मा से प्रेम करे, उसका भजन करें, आज के समय में प्रसन्न रहने के लिए यह पर्याप्त है। बहुत ज्यादा साधनों में उलझने की आवश्यकता नहीं है।

महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रसन्न रहने की शुरुआत अपने घर से ही होनी चाहिए। हम बाहर तो बहुत खुश रहते हैं, लेकिन घर में अकारण क्रोध से भरे रहते हैं। सभी लोग, खासतौर पर युवा इस बात का ध्यान रखें कि उन्हें घर में भी प्रसन्न रहना है। युवाओं को यह बात याद रहे, इसलिए एक नया मंत्र दे रहा हूं। वे घर और परिवार में भी शांति रखें। कई लोग बाहर से घर में आते ही गुस्से हो जाते हैं।

वे अकारण गुस्सा कर घर वालों को मायूस कर देते हैं। यह हत्या कर देने जैसा अपराध है। मुश्किल यह है कि ये लोग अपनी कमी को मानते भी नहीं। कम से कम वे यह मान लें कि उसमें यह कमी है तो कभी न कभी वह दूर भी की जा सकती है। लंका में कोई मानता ही नहीं था कि वहां कोई रोगी है। परिणाम सबके सामने है। जो माने ही नहीं कि अस्वस्थ है, वह स्वस्थ कैसे हो सकता है? एक और मंत्र याद रखें-छोटी-मोटी बातों को अनदेखा करें। व्यर्थ विवाद में मत उलझें। बात-बात में उलझने की आदत से अशांति ही पैदा होती है। सच्ची प्रसन्नता चाहिए तो इधर-उधर की बातें सुनना ही छोड़ दें। अस्तित्व के संगीत को सुनने की कोशिश करें।

याद रखें, जिसे प्रसन्न रहना है, उसे कोई रोक नहीं सकता और जिसे दुखी ही रहना है, उसे कोई प्रसन्न नहीं कर सकता। कुछ लोगों को प्रसन्न रहना ही नहीं है। वे परेशान और दुखी होने के बहाने खोजते रहते हैं। इस आदत को बदलने की कोशिश ईमानदारी के साथ की जानी चाहिए। मेरा मानना है कि उपवास या कोई अन्य साधना करने से भी बड़ा तप है प्रसन्न रहना। मुस्कुराते हुए हर विपरीत स्थिति का सामना करते हुए उसे सहन करना भी तप है। मुस्कुराते हुए सब सहन करें और दूसरों की भलाई ही करें, इससे बड़ा तप और क्या हो सकता है। हम उपवास रखते हैं।

कई लोग उपवास के दौरान भूख सहन नहीं कर पाते। ऐसी स्थिति में वे क्रोध करते हैं। चिड़चिड़ापन आ जाता है, तो फिर ऐसा उपवास तप नहीं हुआ। तप तो सहन करना होता है। श्रीरामचरितमानस और अन्य ग्रंथों का जीवन में महत्व समझें। आप कह सकते हैं कि भागदौड़ भरे जीवन में ग्रंथ पढ़ने का समय कहां से निकालें? मैं कहता हूं कि आज के इस दौर में तो इंटरनेट के जरिए भी बहुत से ग्रंथ पढ़ कर अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त किया जा सकता है। ये ग्रंथ हमारे गुरु हैं।

कलिकाल में समस्याओं के समाधान का एक बड़ा साधन और उपाय हरि नाम है। स्वयं भगवान शिव राम नाम जपते हैं। राम परम तत्व हैं। हमारी बहुत सी परेशानियों का कारण हमारा मोह है। मोह रूपी रावण को राम ने मारा था। हमारे भीतर महामोह का महिषासुर बैठा है। महिषासुर का वध राम ने नहीं, मां काली ने किया था। इसे मारने के लिए हम राम कथा का सहारा लें। राम कथा एक ओर जहां काली के रूप में कराल है, तो वहीं चंद्रमा की किरणों की तरह उसमें कोमलता-शीतलता भी है।

प्रसन्न रहना है तो प्रत्येक व्यक्ति पर, प्रत्येक बात और प्रत्येक परिस्थिति पर संदेह करने की आदत छोड़नी होगी। एक समय सती ने शिव की बातों का विश्वास नहीं किया और भगवान की परीक्षा लेने लगीं। इस कारण अंत में उन्हें शिव वियोग का सामना करना पड़ा। शंकर विश्वास हैं। भक्ति में संशय का कोई स्थान नहीं। विश्वास जीवन है, संशय हमें नाश तक ले जाता है। एक बात और, किसी भी विपरीत परिस्थिति या किसी भी कठिनाई को विपत्ति मत समझें। श्रीरामचरितमानस की प्रसिद्ध पंक्ति है-

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।

जब तव सुमिरन भजन न होई।।

अर्थात विपत्ति तो तब है, जब व्यक्ति हरि भजन भूल जाए। गौतम बुद्ध ने कहा है कि दुनिया में दुख है, दुख के कारण हैं, दुख के उपाय भी हैं और उपाय शक्य भी हैं यानी वे उपाय किए भी जा सकते हैं। इस कथन को सकारात्मक रूप में लेकर मैं कहता हूं कि सुख भी है, सुख के कारण भी हैं, सुख के उपाय भी हैं और उपाय शक्य भी हैं। दुख है तो सुख भी है। थोड़ी दृष्टि बदल जाए तो दुख सुख में परिवर्तित हो सकता है। सुंदरकांड की चौपाई है-

रामचंद्र गुन बरनै लागा।

सुनतहि सीता कर दुख भागा।

जानकी दुखी थीं, लेकिन जैसे ही हनुमान जी ने राम कथा सुनाना शुरू किया तो सीता का दुख भाग गया। भगवत् गुणगान से, श्रवण से दुख भागता है। संग से दुख भागते हैं- संत मिलन सम सुख नाही…। सुख पाना है सो अच्छा संग करें। दुख को भगा कर प्रसन्न रहना है तो शुभ सुनने की आदत डालने का प्रयास करें।

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