आर.के. सिन्हा
निश्चित रूप से भाषा धरती की होती है, न किकिसी धर्म या फिरके की। पर इस छोटे से तथ्य की लम्बे समय से अनदेखी होती रही है। इसके अनेकों घातक परिणाम भी सामने आए हैं। इसी तरह से किसी धर्म या वर्ग विशेष के ऊपर कभी कोई भाषा को थोपने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। बल्कि, हर बच्चे को उसकी अपनी मातृभाषा में पढ़ने का स्वाभाविक अधिकार मिलना चाहिए। याद रखा जाना चाहिए कि बच्चा अपनी मातृभाषा में सबसे आराम से किसी भी तरह की पढाई सीखता है, किसी भी तरह के ज्ञान को ग्रहण करता है।
अच्छी बात यह है कि भारत में सभी जुबानों के प्रसार– प्रचार में सरकार सक्रिय रहती है। इसलिए भारत में भाषा के सवाल लगभग सर्वमान्य हो गए हैं। पर बीच–बीच में कुछ राज्यों में कभी –कभी हिन्दी विरोधी स्वर सुनाई देने लगते हैं। हालांकि, हिन्दी को अब कहीं कोई थोप नहीं रहा। हिन्दी स्वाभाविक रूप से सर्वग्राह्य देश की सर्वमान्य बोलचाल की भाषा के रूप में उभर चुकी है। पड़ोसी पाकिस्तान तो भाषा के सवाल पर 1947 के बाद बिखर ही गया था। क्योंकि, मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान के बनने के बाद उर्दू को राष्ट्र भाषा घोषित करके बहुसंख्यक बांग्ला भाषियों और सिंधियों का घोर अपमान किया था। इसका नतीजा यह हुआ कि पूरा पूर्वी पाकिस्तान उनके खिलाफ खड़ा हो गया। अंत में मुख्य रूप से भाषा के सवाल पर ही पाकिस्तान टूट भी गया। दूसरा हिस्सा बना बांग्लादेश।
दरअसल, भारत के कुछ राज्यों में हिन्दी का विरोध शुद्ध रूप से राजनीतिक ही रहा है। आम जनता तो हिन्दी को अपने आप स्वाभाविक रूप से सीख–पढ़–जान ही रही है। एचसीएल टेक्नॉलीज के तमिल भाषी चेयरमेन शिव नाडार कहते हैं कि हिन्दी पढ़ने वाले छात्रों को अपने करियर को चमकाने में लाभ ही तो मिलेगा। वे भारत के सबसे सफल कारोबारियों में से एक माने जाते हैं और लाखों पेशेवर उनकी कंपनी में काम करते हैं। हिन्दी का विरोध करने वालों को शिव नाडार जैसे सफल तमिल भाषी उद्यमी से सीख लेनी चाहिए।
हां, तमिलनाडू में 60 के दशक में हिन्दी का तीव्र विरोध हुआ था। उस आंदोलन को अब लगभग आधी सदी बीत गई है। तीन नई पीढ़ियों ने जन्म ले लिया है । अब वहां पर हर स्तर पर हिन्दी सीखी–पढ़ी जा रही है। इसी तरह से कर्नाटक में विगत वर्ष तब कुछ हिन्दी विरोधी सामने आ गए थे जब बैंगलुरू के कुछ मेट्रो स्टेशनों का नाम हिन्दी में लिख दिया गया था। पर वहां पर आम इंसान की तो हिन्दी से कोई शत्रुता नहीं है। क्योंकि, हिंदी सभी बोलते–पढ़ते–जानते हैं।
गांधी जी कहा करते थे कि “हिन्दी भारत की भाषा है। भारत के लिए देवनागरी लिपि का ही व्यवहार होना चाहिए । रोमन लिपि का व्यवहार यहां हो ही नहीं सकता। अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिए ऐसी भाषा की आवश्यकता है जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही जानता–समझता है। और हिन्दी इसी दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है।” गांधी जी से ज्यादा इस देश को कोई नहीं जान–समझ पाया।
पाकिस्तान बनने के बाद वहां पर हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा मान लिया गया। नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान में हिन्दी के पढ़ने–लिखने पर रोक लगा दी गई। वहां पर पहले से चल रहे हिन्दी के प्रकाशन भी बंद हो गए। स्कूलों– कॉलेजों में हिन्दी की कक्षाएं लगनी समाप्त हो गई। वर्ना पंजाब की राजधानी लाहौर के गर्वंमेंट कालेज, फोरमेन क्रिशचन कालेज, खालसा कालेज, दयाल सिंह कालेज, डीएवी वगैरह में हिन्दी की स्नातकोत्तर स्तर तक की पढ़ाई की व्यवस्था आजादी के पूर्व थी। लाहौर में 1947 तक कई हिन्दी प्रकाशन सक्रिय थे। इनमें राजपाल प्रकाशन खास था। हिन्दी के प्रसार–प्रचार के लिए कई संस्थाएं जुझारू प्रतिबद्धता के साथ जुटी हुई थीं। इनमें धर्मपुरा स्थित हिन्दी प्रचारिणी सभा का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। हिन्दी प्रचारणी सभा स्कूलों–कालेजों में हिन्दी की वाद–विवाद प्रतियोगिताएं आयोजित करवाती थी। हालांकि पाकिस्तान में अब फिर से हिन्दी अपनी दस्तक दे रही है।