होली 2022: आनंद और उल्लास के रंग

हमारे यहां चैत्र और वैशाख को वसंत ऋतु माना गया है, परंतु इसके आने की आहट माघ पंचमी से शुरू हो जाती है और फाल्गुन पूर्णिमा तक आते-आते प्रकृति अपने सुंदरतम रूप में आ जाती है। जब सौंदर्य चारों ओर पसरा हो तो शिव के माध्यम से सत्य को जानने की उत्कंठा बढ़ जाती है। यह उत्कंठा ही है, जो सभी के मन को एक विशेष प्रकार के उल्लास के रंग में रंग डालती है। नक्षत्रों से एक विशेष आभा छलकने लगती है। कोयल की कूक और चिड़ियों के कलरव में दिशाएं मानो मंत्र पाठ करती हुई किसी दिव्य शक्ति का आह्वान करने लगती हैं। चारों ओर बरसने लगता है एक अनहद निनाद। मंजरियों का रस, फूलों का सौरभ, भ्रमरों का प्रेम तो मलय समीर का धैर्य छलकने लगता है। कोलाहल के बीच भी यमुना तट का एकांत निर्मित हो जाता है और मन की गोपियों के प्रेम की गागर छलक पड़ती है।वसंत की आनंदाभिव्यक्ति में यह सब होता है फागुन में। परम विरक्ति से पूर्व परमानंद की अवस्था। तभी तो धूनी रमाये, भस्म लगाए परम योगी शिव को भी गौरी के प्रेम बंधन में बंधना पड़ा इसी ऋतु में। चंद्र की एक-एक कला के साथ आनंद से भरती जाती सृष्टि। अपने उल्लास में राधा कृष्ण को नारी रूप में सजाती है। ‘रसिया को नार बनाओ री’ आह्वान कर सखियों को सहायता के लिए बुलाती है। दूसरी ओर अड़भंगी शिव स्वयं ही नारी रूप सजा लेते हैं। अर्धनारीश्वर बन गौरी के साथ अभेद प्रमाणित करते हैं। प्रकृति पुरुष का द्वैत समाप्त कर देते हैं। मनुष्य के लिए परम ब्रह्म के सत्य का निरावरण कर देते हैं। अवगुंठन समाप्त होता है। परम आनंद स्पष्ट परिलक्षित होता है। अनुभूति के लिए बस आत्म द्वार खोलने की देर होती है।वराह पुराण में होलिका पूर्णिमा को पटवास विलासिनी कहा गया है। एक प्राचीन उत्सव, जो अनेक परिवर्तनों को देखते हुए भी अबाध गति से प्रतिवर्ष आता है। इसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र से लेकर लिंग पुराण आदि में भी आया है, जिसमें इस पर्व को आनंद और उल्लास के पर्व के रूप में मनाए जाने की बात लिखी है। सुगंधित चूर्ण बिखेरना, रंग से एक-दूसरे को भिगोना तथा बाल क्रीड़ाओं से पूर्ण इस पर्व को स्त्रियों के सौभाग्य से भी जोड़ा गया। जैमिनी आदि विद्वानों के द्वारा भी इस पर्व का उल्लेख किए जाने से यह सिद्ध होता है कि ईसा पूर्व कई शताब्दियों से इस उत्सव का प्रचलन था।

लोक से लेकर साहित्य तक इस उत्सव की मिठास फैली हुई है। ‘कन्हैया घर चलो गुइयां, आज खेले होरी’, गुनगुनाते हुए सखियां माखन चोर के घर धावा बोलती हैं और कृष्ण समर्पण कर देते हैं। सखियां उन्हें जी भर अपने रंग में रंगती हैं। ऐसा रंग कि परम सत्य कृष्ण गोपियों के छछिया भर छाछ पर नाचने के लिए विवश हो जाता है। लीला करता है, रास रचाता है, माखन चुराता है, वंशी बजाता है और कुंज-निकुंज में नानाविध क्रीड़ा करता है। दोनों हाथ उठाए सर्वस्व समर्पण कर देना ही जीत है।

भक्त और भगवान का एक रंग हो जाना ही चरम परिणति है। बसंत माधव है। राधा तत्व वह मृदु सलिला है, जो चिरंतन है, प्रवाहमान है, लेकिन जब हम उसे अपनी संकीर्ण अंजुरी में भरकर देखने का प्रयास करते हैं तो अंगुलियों की फांक से बूंद-बूंद रिस कर पुन: नदी बन जाती है। एक ऐसी नदी, जिसमें आकर मिलने वाले सभी ताल, सरोवर उसी का रूप हो जाते हैं। एक नाम हो जाते हैं। एक तत्व कृष्ण प्रेम, एक भाव राधा भाव। वैसे ही जैसे गंगा में गिरने वाली तमाम छोटी-बड़ी नदियां गंगा बन जाती हैं। पार्थक्य समाप्त हो जाता है। अस्तित्व का द्वैत मिट जाता है।प्रकृति का सौंदर्य जब चारों ओर पसरा हो, तो शिव के माध्यम से सत्य को जानने की उत्कंठा बढ़ जाती है। यह उत्कंठा ही है, जो सभी के मन को एक विशेष प्रकार के उल्लास के रंग में रंग डालती है..

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